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बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

शुभकामनाएं

शुभकामनाएँ
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दो छोटी छोटी रचनाएँ प्रस्तुत हैं ,,नई तो नहीं है लेकिन शायद बहुत कम लोगों की पढ़ी हुई है ,,

आप सभी को दीपावली की बहुत बहुत शुभकामनाएं


मन में ज्ञान का दीप जलाकर ,
अंतर्मन से प्रश्न करें .
हम ने कैसे कर्म किए हैं ?
गर्व करें या शर्म करें?
अंतर्मन ही न्यायधीश है,
वो तो सच्ची बात कहेगा.
इस दीवाली न्यायधीश की ,
बात सुनें और कर्म करें .


दीपावली के नन्हे दिए सीख देते हैं
तुम ख़ुद जलो पर आंच किसी और पर न आए
सद्भावना के दीप में बाती हो प्यार की
आतंकवाद जिन के उजालों से हार जाए

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

ग़ज़ल

कल यानी ९ अक्तूबर को  इस ब्लॉग की दूसरी सालगिरह के मौक़े  पर एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है 


".........रोई ख़ाक ए मक़तल क्यों "
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हवा भी गर्म है छाए हैं सुर्ख़ बादल क्यों?
ये ज़ुल्म किस पे हुआ ?रोई ख़ाक ए मक़तल क्यों?

जो ख़्वाब देखता आया हूं अपने बचपन से
अधूरा ख़्वाब वो होता नहीं मुकम्मल क्यों ?

हैं आज कैसी ये बेचैनियां फ़ज़ाओं में
दिल ओ दिमाग़ हुए जा रहे हैं बोझल क्यों?

जो आरज़ू थी कि हों इर्द गिर्द गुल बूटे
तो तुम ने नागफनी के उगाए जंगल क्यों ?

हम अपने शौक़ की दुनिया में गुम थे कुछ ऐसे
समझ न पाए कि भीगा है माँ का आँचल क्यों 

सुकूत से भी समंदर के ख़ौफ़ आता है 
हैं क्यों ख़मोश ये मौजें ? नहीं है हलचल क्यों?

मैं जब सुकून की मंज़िल से चंद गाम पे हूं
सदाएँ देता है माज़ी मेरा मुसलसल क्यों ?

वो कौन अपना ’शेफ़ा’ याद आ गया तुम को 
तुम्हारी आँख हुई जा रही है जलथल क्यों ?

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ख़ाक = मिट्टी ; मक़तल = रणभूमि ; मुकम्मल = पूरा ; आरज़ू = इच्छा 
सुकूत = ख़ामोशी ; गाम = क़दम ; माज़ी = अतीत ; मुसलसल = लगातार

रविवार, 4 सितंबर 2011

प्यार क्या है .............?

सभी शिक्षकों को ’शिक्षक दिवस’ बहुत बहुत मुबारक हो
सच्ची शिक्षा वही है जिस के द्वारा मनुष्य का सर्वांगीण विकास हो 
और ऐसी शिक्षा के दो सशक्त स्तंभ हैं  १ -मानवता और  २ -प्यार  तथा स्नेह, जिन पर इस संसार का अस्तित्व टिका हुआ है,, बस इसी दूसरे स्तंभ को आधार बना कर ये कविता / नज़्म रश्मि प्रभा जी के  द्वारा  दिये गए विषय पर लिखी गई 

प्यार क्या है ........?
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कितने वर्षों से यही इक प्रश्न 
मन में गूँजता है
प्यार क्या है ?

है किसी के वास्ते ये इक शिवाला
और किसी के वास्ते है सिर्फ़ हाला
ये किसी के वास्ते वरदान है
और किसी के वास्ते बलिदान है

ढाई अक्षर
जिन में पोशीदा है 
दुनिया भर का ज्ञान
ऐसा जज़्बा जिस से आए 
मुर्दा रूहों में भी जान
ये कभी तो डूबती नैया का 
इक पतवार है 
और कभी ,अपने प्रिय का 
साथ और आधार है  

कोई इस को खेल समझे 
कोई जीवन मान ले
कोई इस को बोझ समझे
कोई इस से ज्ञान ले 
कोई करता प्यार धन से 
और कोई अपने वतन से 
माँ की ममता प्यार का पर्याय है
प्रेम, जीवन ग्रंथ का अध्याय है 

कैसे इस को कोई भी इंसां 
परिभाषित करे
और सुगंधित पुष्परूपी शब्द से 
वासित करे
इस के कितने रंग 
कितने रूप
कितने भाव हैं
शाश्वत है ये किसी की दृष्टि में
रोग का उपचार हो जाता है इस की वृष्टि में
प्यार दहशतगर्द को जीना सिखा दे
प्यार मानवता के हित मरना सिखा दे 
नाम, दो दिल जोड़ने का प्यार है 
प्यार हर रिश्ते का, इक आधार है

कितने रूपों में इसे हम देखते हैं 
और फिर भी सोचते हैं 
क्या इसे हम जान पाए ?
क्या इसे पहचान पाए ?
प्रश्न समक्ष फिर खड़ा है 
प्यार क्या है ...? 

सोमवार, 15 अगस्त 2011

.........ज़िंदा हैं हम

आज चारों ओर भ्रष्टाचार  ,अन्याय ,अत्याचार जैसे शब्द वातावरण में घूम रहे हैं ,इन शब्दों के बार बार मस्तिष्क से टकराने और परिस्थितियों की जटिलता के कारण कुछ  विचारों ने कविता का रूप धारण किया जो मैं आप सब के साथ साझा करना चाहती हूं ,,,,सहमति या असहमति आप का अधिकार है और उस की अभिव्यक्ति का हृदय से स्वागत है

"............ज़िंदा हैं हम "
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हर तरफ़ है शोर भ्रष्टाचार का, अन्याय का
खुल चुका है पृष्ठ अत्याचार के अध्याय का
हर तरफ़ हड़ताल , धरने और सभाओं का चलन
हर तरफ़ है राजनीति ,बस नहीं चिंतन मनन

किस की ग़लती है यहां ? है किस के दुर्भावों का राज?
बेच दी भूमि किसी ने और गिरी निर्धन पे गाज
है दुराचारी कोई, व्यभिचार का हामी कोई
है प्रवतक दुर्गुणों का और अहंकारी कोई

लूटता है अपना हिंदुस्तान खेलों में कोई
झोलियां भरता है अपनी आज मेलों से कोई
कोई मानवता की दीपक-ज्योति को मद्धिम करे
कोई भारत मां की आँखें आँसुओं से नम करे

क्यों हुआ? ये कब हुआ? कैसे हुआ ?क्या क्या हुआ?
बेअसर है क्यों हमारी ज़िंदगी की हर दुआ ?
पर नहीं हारेंगे हिम्मत ,ढूँढ लेंगे कोई हल
जाग जाएं हम तो आएगा सफलता का भी पल 

सब से पहले अपने अँदर की कमी को ढूँढ लें 
अपने कर्मों की कथाएं अपने मन से पूछ लें
हम सभी करते हैं बातें ,अपने ही अधिकार की
कर नहीं पाते हैं हिम्मत, झूठ से इंकार की

वोट देने का जो आए वक़्त हम छुट्टी मनाएं
भूल कर कर्तव्य अपने, दाँव पर जीवन लगाएं
उन को संसद में बिठाएं जो हमें  दें वेदनाएं 
जो कि हैं दोषी उन्हीं के सामने हम सर झुकाएं

दुख तो है ,पर भूल जाएं जो हुआ सो हो गया
ले के फिर परचम उठें हम देश के सम्मान का
एकता के हाथ और ईमान के पाँव लिये
हम बढ़ें इस फ़ैसले की रौशनी दिल में लिये

अब न होने देंगे हम व्यभिचार ये उद्देश्य हो
अब न होने देंगे अत्याचार ये ही लक्ष्य हो
अब हर इक सत्ता समझ ले , जान ले , ज़िंदा हैं हम
दूर भ्रष्टाचार से, ईमान की गंगा हैं हम

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

.....अक्सर मज़ाक़ में

जनाब शाहिद मिर्ज़ा "शाहिद" साहब की एक ख़ूबसूरत  ग़ज़ल और उस के रदीफ़ से मुतास्सिर हो कर की गई एक कोशिश पेश ए ख़िदमत है ,...’मज़ाक़ मेंरदीफ़ की वो ग़ज़ल उन के ब्लॉग पर पोस्ट हुई और जनवाणी, मेरठ के कॉलम गुनगुनाहटमें छपी ,, जिस का लिंक भी पेश ए ख़िदमत है

"................अक्सर मज़ाक़ में"
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रिश्ते भी वो बनाए है अक्सर मज़ाक़ में
उन को मगर निभाएगा क्योंकर मज़ाक़ में

इक झूट सब के बीच वो इस तर्ह कह गया
फिर जाने कितने टूट गए घर मज़ाक़ में

हर लफ़्ज़ तीर बन के जिगर में उतर गया
हालांकि कह रहा था वो हंस कर मज़ाक़ में

जोकर की तर्ह मेरा भी किरदार हो गया
जग को हंसा रहा था मैं रो कर मज़ाक़ में

अपनी ज़ुबाँ पे इतना तो क़ाबू रखो शेफ़ा
तोड़े न दिल चलाए न ख़ंजर मज़ाक़ में


शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

.............हम भी ,तुम भी

ग़ज़ल के चंद अश’आर हाज़िर ए ख़िदमत हैं ,
मुलाहेज़ा फ़रमाएं

............हम भी ,तुम भी 
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ऐसी गुज़री है कि हैरान हैं हम भी ,तुम भी
आज फिर बे सर ओ सामान हैं हम भी ,तुम भी
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क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
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छीन लेता है यहां भाई की रोटी भाई
सानहे कहते हैं हैवान हैं हम भी , तुम भी
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लब थे ख़ामोश प नज़रों के तसादुम ने कहा
चंद जज़्बों के निगहबान हैं हम भी , तुम भी
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ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं 
बेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी
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इम्तेहां लेता है वो और वही हल देता है
तालिबे साया  ए  रहमान है  हम भी , तुम भी
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अना = ego ;तसादुम = टकराव ; बयाबान = जंगल
निगहबान =रक्षक ; 

शुक्रवार, 10 जून 2011

.................सहर हो गई

गर्मी की छुट्टियां मसरूफ़ियात में एज़ाफ़ा कर देती हैं और  कभी कभी नेट से रिश्ता रख पाना 
नामुम्किन हो जाता है लिहाज़ा कुछ अरसे के बाद एक तरही ग़ज़ल के साथ हाज़िर हुई हूं 
मुलाहेज़ा फ़रमाएं 

"ज़रा आँख झपकी सहर हो गई "
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दुआ जो मेरी बेअसर हो गई 
फिर इक आरज़ू दर बदर हो गई

वफ़ा हम ने तुझ से निभाई मगर 
निगह में तेरी बे समर हो गई 

तलाश ए सुकूँ में भटकते रहे 
हयात अपनी यूंही बसर हो गई

कड़ी धूप की सख़्तियाँ झेल कर 
थी ममता जो मिस्ले शजर हो गई 

न जाने कि लोरी बनी कब ग़ज़ल 
"ज़रा आँख झपकी सहर हो गई"

वो लम्बी मसाफ़त की मंज़िल मेरी
तेरा साथ था ,मुख़्तसर हो गई

मैं जब भी उठा ले के परचम कोई
तो काँटों भरी रहगुज़र हो गई

’शेफ़ा’ तेरा लहजा ही कमज़ोर था 
तेरी बात गर्द ए सफ़र हो गई 
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बेसमर = असफल ; शजर = पेड़ ; मसाफ़त = दूरी , फ़ासला ;
मुख़्तसर = छोटी ; परचम = झंडा ; रहगुज़र = रास्ता 
गर्द ए सफ़र = राह की धूल