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शनिवार, 3 नवंबर 2012

एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है 
आज मेरा जी चाहा कि इसे आप सब तक भी पहुंचाऊं
अब आप बताएं कि मेरा फ़ैसला ठीक है या मेरे कलाम ने आप सब को
नाउम्मीद किया
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ग़ज़ल
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अह्ल ए वफ़ा को जंग में उस पार देख कर
हूँ मुंजमिद यक़ीन को मिस्मार देख कर
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जिस की ज़ुबाँ ने ज़ख़्म दिये हैं मुझे सदा
हैराँ हूँ आज उन को तरफ़दार देख कर
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हर पल मुझे हयात का अब मुख़्तसर लगे
डरने लगा हूँ वक़्त की रफ़्तार देख कर
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दुशवार रास्तों का सफ़र शौक़ बन गया
आसानियों से तेरा वो इन्कार देख कर
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मुस्तक़्बिल ए हयात का नक़्शा सा खिंच गया
ख़ामोश सर झुकाए वो अश्जार देख कर
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बचपन में शौक़ से जो घरौंदे बनाए थे
इक हूक सी उठी उन्हें मिस्मार देख कर
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देखो न ज़ात-पात न नाम ओ नसब ’शेफ़ा’
पर दोस्त जब बनाओ तो किरदार देख कर 
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अह्ल ए वफ़ा= वफ़ादार लोग,,, मुंजमिद=स्तब्ध,,,मिस्मार=टूटा हुआ,बिखरा हुआ,,,
हयात=जीवन,,,मुख़्तसर=छोटा,,,रफ़्तार=गति,,,दुश्वार=कठिन,,,
मुस्तक़्बिल=भविष्य,,,अश्जार=वृक्ष का बहुवचन,,,
नाम ओ नसब=प्रसिद्धि और परिवार
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