गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
और बधाई
एक कविता प्रस्तुत है जिसे लिखना मेरे लिये तकलीफ़ का कारण तो था
लेकिन न लिखना बेचैनी का कारण बन जाता
और
वही तकलीफ़ और विचार मैं आप से शेयर करना
चाहती हूं
"चीत्कार"
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अंतर्मन का चीत्कार है
कैसा भारत माँ से प्यार है
झंडा जो सम्मान का द्योतक
झेल रहा सत्ता की मार है
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आंखों में अंगारे भर के
इक दूजे पर *तोहमत धर के (*आरोप)
माँ को हम करते शर्मिंदा
गृह कलह विज्ञापित कर के
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क्यों ध्वज पर ये राजनीति है ?
क्यों शत्रु की सफल नीति है ?
माँ का तन ,मन आहत हो तो
कैसा मोह और कैसी प्रीति है?
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रैली का आयोजन कर के
या प्रवेश पर रोक लगा के
आख़िर क्या साबित करते हैं
देश प्रेम का मूल्य लगा के ?
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घोटालों में डूब रहा है
घर वालों से जूझ रहा है
देश के सम्मुख प्रश्न भयावह
मां का भरोसा टूट रहा है
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प्रश्न अनुत्तरित कई यहां हैं
मन के सुकूं और चैन कहां हैं
जनता भूखे पेट खड़ी पर
’उन के ’ तो आबाद जहां हैं
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इन सब का हल कैसे निकले
तप कर लोहा भी तो पिघले
सत्ता की गलियों से निकलो
याद करो वचनों को पिछले
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अपना वादा प्यार देश से
और तिरंगे माँ के वेश से
लहराएं गणतंत्र दिवस पर
कर के तिरंगा दूर,,द्वेष से
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काश्मीर से कन्याकुमारी
गोवा से ले कर गोहाटी
सदा यूंही लहराए तिरंगा
देश का मान बढ़ाए तिरंगा