मेरे ब्लॉग परिवार के सदस्य

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मोआशरे के हालात और रिश्तों के ताने -बाने बुनती हुई इस ग़ज़ल के साथ एक बार फिर आप की तन्क़ीद और दुआएं समेटने की  उम्मीद में ......................

......................अपने छूट जाते हैं

---------------------------------------

न डालो बोझ ज़हनों पर कि बचपन टूट जाते हैं
सिरे नाज़ुक हैं बंधन के जो अक्सर छूट जाते हैं

नहीं दहशत गरों का कोई मज़हब या कोई ईमां
ये वो शैतां हैं, जो मासूम ख़ुशियां लूट जाते हैं

हमारे हौसलों का रेग ए सहरा पर असर देखो
अगर ठोकर लगा दें हम, तो चश्मे फूट जाते हैं

नहीं दीवार तुम कोई उठाना अपने आंगन में
कि संग ओ ख़िश्त रह जाते हैं ,अपने छूट जाते हैं

न रख रिश्तों की बुनियादों में कोई झूट का पत्थर
लहर जब तेज़ आती है ,घरौंदे टूट जाते हैं 

’शेफ़ा’ आंखें हैं मेरी नम, ये लम्हा बार है मुझ पर
बहुत तकलीफ़ होती है जो मसकन छूट जाते हैं

------------------------------------------------------------------------

रेग ए सहरा= रेगिस्तान की ज़मीन ; चश्मे = निर्झर ; संग ओ ख़िश्त = पत्थर और ईंट 
बुनियाद = नींव ; मसकन = घर,निवास स्थान












------------------------------------------------------------------