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मंगलवार, 18 जनवरी 2011

बात अनकही

आज कोई तमहीद नहीं ,बस एक ग़ज़ल मुलाहेज़ा फ़रमाएं 

"बात अनकही"
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जब कभी डराती है शब की तीरगी मुझ को 
मां ही इक मिनारा है दे जो रौशनी मुझ को

बोलती थीं नज़रें पर लफ़्ज़ बे सदा से थे 
वक़्त पर ज़बां ने भी चोट आज दी मुझ को

दर्द दे जो ज़ख़्मों से चूर चूर ख़ुद्दारी
याद आ ही जाती है उस की कज रवी मुझ को 

चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को

कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को 

हम हवा के हमलों को अपने दम पे रोकेंगे
दे रहे भरोसा हैं अम्न ओ आश्ती मुझ को 

क्यों वफ़ा ज़माने की ठोकरों में रहती है?
ये जवाब देती है उस की सादगी मुझ को 

जिन को नर्म गोदी की शफ़क़तों ने पाला था
लग रहे हैं लहजे वो आज अजनबी मुझ को 

आ ’शेफ़ा’ उमीदों के कुछ दिये जला लूं मैं 
अहद ए नौ ने बख़्शी है अपनी ताज़गी मुझ को 

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मिनारा = light house ;तीरगी = अंधेरा ; शफ़क़तों = स्नेह ,प्यार ;
अहद ए नौ = नया ज़माना ; आश्ती= शान्ति