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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

.............इस दयार में

एक आम सी ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है ,,

ग़ज़ल
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पथरा गई निगाह इसी इंतेज़ार में 
आएगा कोई शख़्स कभी इस दयार में 
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चाहा था तुम ने फूल खिलें रेगज़ार में 
पर बात ये नहीं थी मेरे एख़्तियार में 
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ऐ रहनुमा ए क़ौम यक़ीं कैसे हो हमें 
धोके मिले हैं हम को सदा एतबार में 
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लोरी , कहानी, प्यार की थपकी कहाँ गई
नन्हे सवाल हैं निगह ए अश्कबार में 
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कैसी उड़ान ,कैसी बलंदी , कहाँ का जोश
सब ख़त्म हो गया तेरे बस एक वार में
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हम ने ज़मीर का कभी सौदा नहीं किया
बस ख़्वाहिशात हार गईं कारज़ार में
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तन्हाइयों को दोस्त बनाना न ऐ ’शेफ़ा’
खो जाएगी हयात ये गर्द ओ ग़ुबार में 
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रेगज़ार = रेगिस्तान ; निगह ए अश्कबार = आँसुओं से भरी आँख ; कारज़ार = युद्ध 
गर्द ओ ग़ुबार = धूल और मिट्टी