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रविवार, 1 नवंबर 2009

'एक डर ' कविता के बारे में मैं कुछ कहना या भूमिका बांधना नहीं चाहती

आप सभी लोग ख़ुद ही समझदार हैं ,धन्यवाद

एक डर

कल तक थे जो भाई साथ
करने लगे वे दो दो हाथ
अम्न्पसंदी मानवता
आज बन गई कायरता
मारपीट है आगज़नी है
राज्य राज्य के बीच ठनी है
भाई भाई के रक्त का प्यासा
छाने लगा कैसा ये कुहासा
यूँ देखो कोई बात नहीं है
बिना बात ही आग लगी है
नेताओं को वोट की लालच
सम्मुख आने लगे सभी सच
भाषण भी भड़काने वाले
कहाँ गए समझाने वाले?
कोई ज़रा उन को समझाए
हिन्दुस्तान है एक बताये
काश्मीर से कन्याकुमारी
पूर्व से पश्चिम जनता साड़ी
उन से केवल शान्ति मांगे
पर वे तोडें अमन के धागे
संविधान में क्या लिखा है
इसकी यहाँ किसे परवाह है
रोटी ,कपड़ा ,छत की समस्या
लाचारी में घोर तपस्या
संविधान की बात सुनें तो
कोई कहीं भी जा सकता है
रोज़ी कहीं कमा सकता है
किसी राज्य में रह सकता है
लेकिन यहाँ तो राजनीति है
केवल बंटवारा नीति है
प्रांतवाद से फूट padegi
आतंकी की शक्ति बढेगी
क्या अब अपने देश के अन्दर
पासपोर्ट और वीजा होगा?
जनता सारे दुःख झेलेगी
राजनीति शतरंज खेलेगी
बचपन में इक कथा सुनी थी
एक पिता ने सीख ये दी थी
एकजुटता इक ऐसा बल है
बल paata जिससे निर्बल है
कृपया देश को जोड़ के रखें
आज़ादी को थाम के रखें
ऐसा न हो दिन वो आयें
इतिहास को हम दुहरायें

अक्सर यहाँ वहां होने वाले दंगों के बाद लगी आग ने ये लिखने पर मजबूर किया मजबूरी इसलिए क्योंकि ऐसी ग़ज़लें खुशी में नहीं लिखी जातीं ।

आग ही आग है हर सिम्त बुझाओ लोगो

जल रहे बस्ती में इन्सान बचाओ लोगो

दुश्मनी खत्म हो और दोस्ती का हाथ बढे

हो सके गर तो ये एहसास जगाओ लोगो

दुश्मनी किस से है क्यों है ये अलग मसला है

नन्हे बच्चों पे तो मत दाओं लगाओ लोगो

टूटी ऐनक है जले बसते हरी चूड़ी है

जाओ बस्ती में ज़रा देख के आओ लोगो

बेखाताओं को न मारो यही कहते हैं धरम

जो नहीं जानते ये उन को बताओ लोगो

जब के रावण था mara राम ने ये हुक्म दिया

साथ इज्ज़त के रसूमात निभाओ लोगो

दिल है बेचैन 'शेफा' मुल्क की इस हालत पर

अब भी खामोश हैं हम ख़ुद को जगाओ लोगो

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