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शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

..............वो इक ज़िया ही नहीं

आज इस ब्लॉग की सालगिरह के मौक़े पर एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है
इस एक साल के सफ़र में आप सब ने जो सहयोग  और  मान दिया
है,उस के लिये मैं बहुत बहुत शुक्रगुज़ार हूं ,ये सफ़र आप सब के सहयोग ,
मशवरों और स्नेह के बिना संभव ही नहीं था ,आप सब के द्वारा दिया 
गया मान और पहचान मेरे जीवन की अमूल्य निधि है ,जिस के लिए सब से पहले 
वंदना अवस्थी दुबे की शुक्रगुजार हूँ जो मुझे ब्लॉग जगत में लाईं और फिर आप सब 
का बहुत बहुत शुक्रिया कि आप ने मुझे इस मंच पर स्थान दिया ,
लीजिये ग़ज़ल हाज़िर है 
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............वो इक ज़िया ही नहीं
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दरीचे ज़हनों के खुलने की इब्तिदा ही नहीं
जो उट्ठे हक़ की हिमायत में वो सदा ही नहीं

ज़मीर शर्म से ख़ाली हैं ,दिल मुहब्बत से 
हम इरतेक़ा जिसे कहते हैं, इरतेक़ा ही नहीं

तख़य्युलात की परवाज़ कौन रोक सका
परिंद जब ये उड़ा फिर कहीं रुका ही नहीं

ग़म ए जहां पे नज़र की तो ये हुआ मालूम
जफ़ा जो हम ने सही ,वो कोई जफ़ा ही नहीं

बग़ैर इल्म के ज़ुलमत कदा है ज़ह्न मेरा
जो कर दे फ़िक्र को रौशन ,वो इक ज़िया ही नहीं

तेरी वफ़ाओं का शीराज़ा मुंतशिर हो कर
बता रहा है हक़ीक़त में ये वफ़ा ही नहीं

जब आया आख़री लम्हात में मसीहा वो
न शिकवा कोई ’शेफ़ा’ और कोई गिला ही नहीं

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इब्तेदा = शुरूआत ; दरीचे =खिड़कियां ;हक़ =सच्चाई ; हिमायत = तरफ़दारी ; इरतेक़ा = तरक़्क़ी ; 
तख़य्युलात=  विचार (ख़याल का बहुवचन) ; जफ़ा = ज़ुल्म ; ज़ुलमत कदा = अंधेरी जगह ; 
फ़िक्र = सोच ; ज़िया = रौशनी ; शीराज़ा = arrangements ; मुंतशिर = बिखरना