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शनिवार, 19 जून 2010


  एक ग़ज़ल हाज़िरे ख़िदमत है ,उम्मीद है हर बार की तरह इस बार भी आप लोग अपने  क़ीमती मशवरों और मुफ़ीद सलाहों से नवाज़ेंगे ,
चंद बिखरे हुए से ख़यालात और अल्फ़ाज़ हैं जिन्हें यकजा करने की ये कोशिश आप को किस हद तक पसंद आएगी ये तो मुझे नहीं मालूम ,बस आने वाले वक़्त का इंतेज़ार है जो इस पहेली को हल करेगा ,
शुक्रिया I                                                                         



..........रूदाद सुनाने बैठ गए
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बीती बातें फिर दोहराने बैठ गए 
क्यों ख़ुद को ही ज़ख़्म लगाने बैठ गए

अभी अभी तो लब पे तबस्सुम बिखरा था
अभी अभी फिर अश्क बहाने बैठ गए?

जाने कैसा दर्द छुपा था आहों में
थाम के दिल हम उस के सरहाने बैठ गए

उस ने बस हमदर्दी के दो बोल कहे
दुनिया वाले बात बनाने बैठ गए

वो नज़रें थीं या कि तिलिस्म ए होश रुबा
हम तो नाज़ुक ख़्वाब सजाने बैठ गए

हम ने तो इक सीधी सच्ची बात कही
और वो फिर मन्तिक़ समझाने बैठ गए 

उन का मक़सद सिर्फ़ सियासत ,छोड़ो भी
क्यों उन को रूदाद सुनाने  बैठ गए 

’शेफ़ा’ न जब सह पाए हम बेगानापन
ग़लती उस की थी ,प मनाने  बैठ गए 

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तिलिस्म=जादू
होश  रुबा=होश उड़ा देने वाला
मन्तिक़=  दर्शन (फ़िलॉसफ़ी)
रूदाद= कहानी , कथा