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मंगलवार, 18 नवंबर 2014

एक अरसे के बाद ग़ज़ल की शक्ल में कुछ टूटे फूटे अल्फ़ाज़ और ख़यालात के साथ हाज़िर हूँ

............. लौट भी आओ सफ़र से
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ख़बर भेजो कभी तो नामाबर से
यही हैं राब्ते अब मुख़्तसर से 
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बहुत दुश्वार है सहरा नविरदी
बस अब तुम लौट भी आओ सफ़र से 
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निशने पर हूँ मैं हर सम्त से ही
इधर से तीर और ख़ंजर उधर से
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पराया कर दिया लहजे ने तेरे
मैं फिर गुज़रा नहीं उस रहगुज़र से
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हमारे हौसले पतवार बन कर
बचा लाए सफ़ीने को भँवर से
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तुम्हारी बेक़रारी कह रही है
कभी बिछड़े नहीं थे अपने घर से
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नामाबर= संदेश वाहक;  मुख़्तसर= छोटा ; दुश्वार= कठिन;
 सहरा नविरदी = यायावरी ; सम्त= ओर ; रहगुज़र= रास्ता ;
 सफ़ीना= नैया ; बेक़रारी = बेचैनी