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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

..........है भी नहीं भी

ग़ज़ल के चंद अश’आर पेश ए ख़िदमत हैं ,मालूम नहीं आप सब की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे भी या नहीं,
आप सब की सलाहों और इस्लाहों का इन्तेज़ार रहेगा ,शुक्रिया


ग़ज़ल 
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गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी


जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी


दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी


अब तक दिल ए मुज़्तर को मेरे चैन नहीं है
पामाल अना मेरी, नेहां है भी नहीं भी


रहबर ये मेरे मुल्क के वादे तो करेंगे
पूरा भी करेंगे, ये गुमां है भी नहीं भी


लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी


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मकीं=मकान में रहने वाले ;अयां=ज़ाहिर ;मुज़तर=बेचैन; नेहां =छिपा हुआ;
पामाल =कुचली हुई ;अना=अहंकार(ego)