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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

माँ

आप सभी को नव वर्ष  की
बहुत बहुत 
शुभकामनाएं

एक नज़्म पेश ए ख़िदमत है ,जिस का ताल्लुक़ नए साल से नहीं 
है ,बल्कि उन हालात से है जो वृद्धाश्रम के इर्द -गिर्द घूमते हैं ,
बस आप तक अपने जज़्बात ओ ख़यालात पहुंचाना चाहती हूं , 
यूं तो कोई नई और ख़ास बात नहीं है ,लेकिन अगर आप
अपना क़ीमती वक़्त यहां सर्फ़ कर सकें तो ये  मेरे लिये
बाइस ए शरफ़ होगा
शुक्रिया


माँ
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वो दो बूढ़ी आंखें तेरा हर दम रस्ता तकती हैं
दिल में जो इक दर्द छिपा है कह न किसी से सकती हैं
जबसे तुम ने ला कर उन को वृद्धाश्रम में डाला है
टूटे ख़्वाबों के रेज़ों को गुमसुम  सी वो चुनती हैं
क्यों बेटा क्या भूल गए तुम बचपन में जब रोते थे
नर्म से उन के हाथ तुम्हारे अश्कों को चुन लेते थे
अपने आंसू पी कर उस ने तुम को दूध पिलाया है
तेरे होठों की मुस्कानें ही उस का सरमाया है
छोटी सी तकलीफ़ पे तेरी वो बेकल हो जाती थी
तुझ को क्या मालूम न जाने क्या क्या वो सह जाती थी
जिस ऊँचाई पर हो बेटा ये उस की ही मेहनत है
शोहरत जो तुम ने है पाई उस की दुआ की बरकत है
जिस की उंगली थाम के तुम ने बचपन में चलना सीखा
उस की लाठी कौन बनेगा ये है कभी तुम ने सोचा ?
उस की ख़ामोशी को बेटा कमज़ोरी तुम मत जानो
बच्चों की ख़ुशियों की ख़ातिर ही वो चुप है ,सच मानो

कल को जब तुम बूढ़े होगे और तुम्हारा बेटा तुम को
वृद्धाश्रम में छोड़  के वो भी मुड़ कर न देखेगा तुम को 
हाँ
तब ये दिन याद आएंगे ,उन की शफ़क़त याद आएगी
आँसू से लबरेज़ निगाहें और मायूसी याद आएगी
लेकिन
तब क्या कर पाओगे मुआफ़ी भी न मांग सकोगे
अब भी वक़्त है बेटा संभलो, वरना फिर तुम पछ्ताओगे
उम्र के आख़िर दौर में उन के दुख ले कर सुख ही सुख दे दो
उन के आँसू पोंछ के बेटा अपने लिए तुम जन्नत ले लो  

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सरमाया= दौलत ; शफ़क़त = स्नेह ,प्यार ; लबरेज़ =भरा हुआ