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रविवार, 2 सितंबर 2012

......... मैं कैसे ग़ज़ल लिखूं

२७ अगस्त को लखनऊ में होने वाले सम्मान समारोह में ये गीत पढ़ा गया 
लेकिन ये लिखा गया  उस समय जब गुवाहाटी काँड ने हमें अत्याधिक व्यथित किया था
आप के विचारों का हृदय से स्वागत है 

" मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ "
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कहीं जातिवाद का ज़ह्र है
कहीं जल रहा कोई शह्र है
कहीं टूटता कोई क़ह्र है 
कोई भाईचारा भुला गया

तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ
तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ

कहीं फूल कोई मसल गया 
कोई भावनाएं कुचल गया
कोई प्यार के नाम पे छल गया
औ’ कली को ज़ह्र पिला गया 

तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ
तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ

अभी शबनमों से धुली न थी
कभी भँवरे से भी मिली न थी
वो कली अभी जो खिली न थी
कोई उस का पेड़ जला गया 

तो बता..............
तो बता..............

जो अकड़ के आज सबल गया
वही जुर्म कर के निकल गया
कोई व्यंग्य से ही पिघल गया
औ’ दमित सदा ही छला गया 

तो बता..........
तो बता..........

मेरी भावनाएं ही मर गईं
यहाँ वेदनाएं ठहर गईं 
वो प्रसन्नताएं बिखर गईं 
कोई वार कर के चला गया

तो बता..........
तो बता..........

यही आस अब मेरे साथ है 
तेरे हाथ में मेरा हाथ है
नए दौर का नया साथ है
ये यक़ीन कोई दिला गया 

तो अब आ मैं कोई ग़ज़ल कहूँ 
तो फिर आ मैं कोई ग़ज़ल कहूँ