२७ अगस्त को लखनऊ में होने वाले सम्मान समारोह में ये गीत पढ़ा गया
लेकिन ये लिखा गया उस समय जब गुवाहाटी काँड ने हमें अत्याधिक व्यथित किया था
आप के विचारों का हृदय से स्वागत है
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कहीं जातिवाद का ज़ह्र है
कहीं जल रहा कोई शह्र है
कहीं टूटता कोई क़ह्र है
कोई भाईचारा भुला गया
तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ
तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ
कहीं फूल कोई मसल गया
कोई भावनाएं कुचल गया
कोई प्यार के नाम पे छल गया
औ’ कली को ज़ह्र पिला गया
तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ
तो बता मैं कैसे ग़ज़ल कहूँ
अभी शबनमों से धुली न थी
कभी भँवरे से भी मिली न थी
वो कली अभी जो खिली न थी
कोई उस का पेड़ जला गया
तो बता..............
तो बता..............
जो अकड़ के आज सबल गया
वही जुर्म कर के निकल गया
कोई व्यंग्य से ही पिघल गया
औ’ दमित सदा ही छला गया
तो बता..........
तो बता..........
मेरी भावनाएं ही मर गईं
यहाँ वेदनाएं ठहर गईं
वो प्रसन्नताएं बिखर गईं
कोई वार कर के चला गया
तो बता..........
तो बता..........
यही आस अब मेरे साथ है
तेरे हाथ में मेरा हाथ है
नए दौर का नया साथ है
ये यक़ीन कोई दिला गया
तो अब आ मैं कोई ग़ज़ल कहूँ
तो फिर आ मैं कोई ग़ज़ल कहूँ
सक्स्च है ऐसे माहोल में सृजन नहीं हो पात ...
जवाब देंहटाएंकाश भाई चारे को लोग समझें और जीवन में उतारें ...
और जो सृजन होता है दिगंबर जी उस में एक बेचैनी होती है
हटाएंऐसे ही वक़्त में तो रचनाकार अपनी सामाजिक भूमिका का निर्वहन करता है. संघर्ष के दौर में ही तो रचनाएं आकार लेती हैं. शांति के समय भले ही न लिखें लेकिन अशांति के समय तो ग़ज़ल लिखनी ही होगी. रचनाकार की यह दुविधा स्वीकार्य नहीं हो सकती है इस्मत जी!वैसे नज़्म बहुत अच्छी है. बधाई स्वीकार करें.
जवाब देंहटाएंइसी लिये तो लिखा गया ये गीत
हटाएंman ki vtha saf jhalak rahi hai...
जवाब देंहटाएंजी शारदा जी सच में मन बहुत व्यथित था
हटाएंहमने यहाँ उल्टा प्रवाह देखा है...वापस भागते लोगों का..
जवाब देंहटाएंहाँ प्रवीण जी वो एक और कारण बना रहा संवेदनाओं को झकझोरने का
हटाएंबहुत सुन्दर इस्मत जी.....
जवाब देंहटाएंमन व्यथित हो तो भी और मन में कोई आस जागी हो तो भी...
गज़ल तो कही ही गयी....
वाह!!!
सादर
अनु
धन्यवाद अनु जी
हटाएंकहीं फूल कोई मसल गया
जवाब देंहटाएंकोई भावनाएं कुचल गया
कोई प्यार के नाम पे छल गया
औ’ कली को ज़ह्र पिला गया
बधाई , इस बेहतरीन रचना के लिए !
बहुत बहुत शुक्रिया सतीश जी
हटाएंsunderta ke saath likhi hui bhawpoorn rachna.....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मृदुला जी
हटाएंजिगर में पैबस्त नश्तर ही तो बोलता है ! 'ग़ज़ल कैसे कहूँ...' बताने में ही ग़ज़ल शिद्दत से मुकम्मल हो गई-- अपनी पूरी तड़प और बेबाकी के साथ ! बेहतरीन है ! ज़रूर ही लखनऊ के हुनरमंदों के बीच सराही गई होगी ! पुरस्कार के लिए बधाइयाँ स्वीकार करो! लौटना कब हुआ वहाँ से ? लिखो !
जवाब देंहटाएंमेरे आशीष--आ. व. ओझा.
आनंद भैया आप की ये हौसला अफ़ज़ाई मुझे कुछ और लिखने की हिम्मत प्रदान करती है,,,बस अपना आशीष बनाए रखें
हटाएंमैं ३० को वापस आ गई थी
जवाब देंहटाएंअभी शबनमों से धुली न थी
कभी भँवरे से भी मिली न थी
वो कली अभी जो खिली न थी
कोई उस का पेड़ जला गया
गीत की इन पंक्तियों ने हिला सा दिया आपा ...
कभी भँवरे से भी मिली न थी...
कोई उसका पेड़ जला गया
धन्यवाद मनु उस घटना ने तो झिंझोड़ कर रख दिया था न
हटाएं
जवाब देंहटाएंअभी शबनमों से धुली न थी
कभी भँवरे से भी मिली न थी
वो कली अभी जो खिली न थी
कोई उस का पेड़ जला गया
गीत की इन पंक्तियों ने हिला सा दिया आपा ...
कभी भँवरे से भी मिली न थी...
कोई उसका पेड़ जला गया
आपको सम्मान मिला उसके लिए बधाई..
जवाब देंहटाएंरचना के लिए बधाई नहीं दे सकूंगा आपा ...
नहीं चाहता कि ऐसा कुछ फिर से हो..और कोई रचना लिखी जाए फिर
बहुत मार्मिक ....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संगीता जी
हटाएंबहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह सुन्दर प्रविष्टि आज दिनांक 03-09-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-991 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत बहुत शुक्रिया चंद्र भूषण जी
हटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल है इस्मत जी और हर शेर भावपूर्ण है ! ऐसे ही वक्तों में कलम को तलवार बनाने की ज़रूरत है और अन्धेरा मिटाने के लिये स्याही के तेल से दीपक जलाने का दुश्वार काम भी मुमकिन करना होगा ! आभार आपका !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया साधना जी गीत पसंद करने के लिये
हटाएंइस्मत साहिबा,
जवाब देंहटाएंएक हादसे से उपजा ये गीत बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है...
काश हम सब सोचना सीख जाएं.
बहुत बहुत शुक्रिया शाहिद साहब ,,संवेदनाओं की की पीड़ा को समझने के लिये
हटाएंkya kahne bahut khoob ma'am...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आशा जी
हटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल है
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय
हटाएंआपको मैंने लखनऊ में सुना, कथ्य और भाव बहुत सुन्दर/,दंश को संवेदना का स्पर्श देती गजल ....
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया उदय वीर जी
हटाएंयही आस अब मेरे साथ है
जवाब देंहटाएंतेरे हाथ में मेरा हाथ है
नए दौर का नया साथ है
ये यक़ीन कोई दिला गया
तो अब आ मैं कोई ग़ज़ल कहूँ
तो फिर आ मैं कोई ग़ज़ल कहूँ
देश-दुनिया के हालात पर परेशान होते, दुखी होते और लगभग निराश होते-होते अंत में उम्मीद का दामन तुमने फिर थामा है, कमाल है...बस उम्मीद का यही जज्बा कायम रखना है हमें. सच कहूं तो लखनऊ समारोह में मुद्राराक्षस जी, या रवि रतलामी जी को छोड़ दें तो कोई भी वक्ता अपनी बात ठीक से कह ही नहीं सका, सिवाय तुम्हारे इस गीत के. बोझिल माहौल को क्या खूब सम्भाला था तुमने..बधाई.
वन्दना तुम तो मुझे उस स्थान पर बिठा देती हो कि अभी मैं जिस के योग्य नहीं ,,हाँ लखनऊ में मुद्रा राक्षस जी से मिलना भी किसी सम्मान से कम नहीं था
हटाएंतुम इसी तरह प्रेरित करती रहना हमेशा :):)
मुकर्रर ... :)
जवाब देंहटाएंमोहब्बत यह मोहब्बत - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !
धन्यवाद शिवम जी
हटाएंआपसे रू-ब-रू वास्ता हुआ | आपको सुनना और भी अच्छा लगा |आपकी सौम्यता प्रभावशाली है |
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया अमित जी आप लोगों से मिल कर बहुत अच्छा लगा
हटाएंआपको सुनने का मौका मिला ..अच्छा लगा...
जवाब देंहटाएंमुझे भी बहुत अच्छा लगा
हटाएंलखनऊ में आपको रूबरू सुनने का सु अवसर मिला,इस मार्मिक गीत को पढ़ कर 27 अगस्त की यादें ताजा हो गईं.
जवाब देंहटाएंये उजड़ने- बसने का सिलसिला
रुका कब ये वक़्त का काफिला
कहीं दिल जला,कहीं गुल खिला
हर रूह को है हिला गया
वाह ,,सुंदर पंक्तियाँ
हटाएंगीत के सारे ही बंद अच्छे है
जवाब देंहटाएंअभी शबनमों से धुली न थी
कभी भँवरे से भी मिली न थी
वो कली अभी जो खिली न थी
कोई उस का पेड़ जला गया
मुझे ये सबसे ज्यादा पसंद आया !
बहुत शुक्र्गुज़ार हूँ आनंद जी
हटाएंपहली बार यहां आया हूं,अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना, क्या कहने
बहुत बहुत शुक्रिया महेंद्र जी
हटाएंआशा है आप आइन्दा भी आते रहेंगे इस ब्लॉग पर
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंAmit jee ne sach kaha... jitna prabhavshali aap likhte ho us se jayda aap vastav me ho ...:)
जवाब देंहटाएंthanx mam:)