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शनिवार, 4 सितंबर 2010

अमल सदाक़त का

............हो अमल सदाक़त का
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कहते हैं शायर की सभी तख़लीक़ात उसे प्यारी होती हैं ,मैं एक मुस्तनद शायेरा न सही पर जो थोड़ा बहुत काग़ज़ पर अल्फ़ाज़ बिखरते हैं उन के बारे में मैं ख़ुद  क्या कहूं इसलिए  आप सभी माहिरीन ए फ़न से ये गुज़ारिश है कि मेरी इस कोशिश की कमियों और ख़ूबियों पर तब्सेरे की ज़हमत फ़रमाएं ,
बहुत बहुत शुक्रिया.

जब हुआ तज़केरा इबादत का
लब पे नाम आ गया शहादत का

मेरे अल्फ़ाज़ खो रहे हैं असर
इन में फ़ुक़दान है फ़साहत का

रख दो बोहतान इंतेक़ामन ही
है ये मे’यार अब सहाफ़त का


फिर जलाओ मुहब्बतों के दिये
ता  अंधेरा मिटे अ’दावत का

हो हवन या मज़ार पर पेशी
हर क़दम हो अमल सदाक़त का

ज़ुल्म सदियों का, उस की ख़ामोशी
लेके परचम उठी बग़ावत का


हर नए ज़ख़्म पर सिपाही में ,
शौक़ बढ़ता गया हिफ़ाज़त का

कुछ तो सीखो ’शेफ़ा’ बुज़ुर्गों से 
उफ़रियत दूर हो जहालत का

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फ़ुक़्दान=अभाव ; फ़साहत=बात को सुंदरता से कहना ; सहाफ़त =पत्रकारिता 
बोह्तान = आरोप ; ता= ताकि ;सदाक़त = सच्चाई ,ईमानदारी 
परचम = पताका ; उफ़रियत = राक्षस