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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

सरहद पर तैनात जाँबाज़ सिपाहियों की नज़्र एक नज़्म इंतेज़ार _________ मुझे यक़ीन है आऊँगा लौट कर इक दिन तुम इंतेज़ार की घड़ियों का मान रख लेना ये कह के आ गया सरहद प फ़र्ज़ की ख़ातिर और आरज़ू के लिये अपनी बन गया जाबिर वो छोड़ आया है आँसू भरी निगाहों को वो छोड़ आया दुआ में उठे कुछ हाथों को वो अपनी बच्ची को सोता ही छोड़ आया है उसे भी छोड़ के आया कि जिस का जाया है बस अपने साथ में लाया है कुछ हसीं लम्हात वफ़ा की, प्यार की,शफ़क़त की ख़ूबतर सौग़ात सहारे इन के गुज़ारेगा कुछ सुकून के पल वो मुश्किलों के निकालेगा सारे ही कस-बल वो अपने मुल्क की हुरमत का मान रक्खेगा और उस की आन के बदले में जान रक्खेगा ये चन्द लम्हे जो फ़ुरसत के उस को मिलते हैं तो उस के अपनों की यादों के फूल खिलते हैं उभरने लगता है ख़ाका कि मुन्तज़िर है कोई उभरने लगती है परछाईं एक बच्ची की जो अपनी नन्ही सी बाँहें खड़ी है फैलाए कि कोई गोद में उस को उठा के बहलाए कि जिस की प्यार भरी गोद में वो इठलाए जो उस के नख़रे उठाए और उस को फुसलाए उभरने लगते हैं कुछ लब दुआएं करते हुए उभरने लगते हैं सीने वो फ़ख़्र से फूले उभरने लगती है मुस्कान एक भीगी सी उभरने लगती हैं आँखें कि जिन में फैली नमी चमकने लगते हैं सिंदूर और बिंदिया भी हो उठती गिरती सी पलकों में जैसे निंदिया भी प एक झटके में मंज़र ये सारे छूट गए ख़लत मलत हुए चेहरे तो धागे टूट गए हज़ारों मील की दूरी प सारे रिश्ते हैं चराग़ यादों के बस यूँ ही जलते बुझते हैं नई उमीद के वो तार जोड़ लेता है यक़ीं के साथ ही अक्सर ये गुनगुनाता है मुझे यक़ीन है आऊँगा लौट कर इक दिन तुम इंतेज़ार की घड़ियों का मान रख लेना _______________________________