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रविवार, 17 जनवरी 2010

............शोर ही मह्फ़िल में रह गया

ग़ज़ल
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नगमा जो प्यार का था,मेरे दिल में रह गया
दह्शत्गरी का शोर ही महफ़िल में रह गया

इक सिम्त खाई , दूसरी जानिब कुआँ अमीक़
हिन्दोस्ताँ तो आज भी मुश्किल में रह गया

है सच पे झूठ ,झूठ पे सच की कई परत
मैं तो उलझ के बस हक़ो बातिल में रह गया

जो भी परिन्द चहका ,क़फ़स बन गया नसीब
ख़ुशियों का राग , नालए बिस्मिल में रह गया

जो मेरे हमसफ़र थे वो आगे निकल गए
मैं अपनी ख्वाहिशों की सलासिल में रह गया

बेदार कर रहा था जो बातों से इल्म की
बे दस्तो पा,वो हलकै क़ातिल में रह गया

थी आरज़ू लबों पे तबस्सुम बिखेर दूं
अरमान घुट के ये भी मेरे दिल में रह गया

नग़मा = गाना ,अमीक़ =गहरा ,हक़ो बातिल =सच झूठ ,क़फ़स =जेल ,
नालाए बिस्मिल =sad song , सलासिल =ज़ंजीर , बेदार =जगाना , 
बे दस्तो पा =मजबूर ,हल्क़ा= घेरा , शिकंजा