पंकज जी के ब्लॉग पर पोस्ट की गई एक पुरानी ग़ज़ल पेश ए ख़िदमत है
..........अभी तक गाँव में
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गोरियाँ पनघट पे जाती हैं, अभी तक गाँव में
प्रीत की राहों के राही हैं, अभी तक गाँव में
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पायलों से सुर मिलाती वो खनकती चूड़ियाँ
लोक धुन पर गुनगुनाती हैं, अभी तक गाँव में
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पक्षियों की चहचहाहट ,सुब्ह की ठंडी हवा
चुनरियाँ खेतों की धानी हैं, अभी तक गाँव में
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झोपड़ी, खलिहान, पनघट, बाग़ में बिखरे हुए
याद के कुछ फूल बासी हैं, अभी तक गाँव में
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छोड़ आए थे जिन्हें तुम गाँव के बरगद तले
झील सी आँखें वो प्यासी हैं, अभी तक गाँव में
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क्या बुज़ुर्गों का है दर्जा? मान क्या सम्मान क्या?
माँएं बच्चों को सिखाती हैं, अभी तक गाँव में
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भूल कर भी अपनी मिट्टी को न भूलेगी ’शेफ़ा’
कुछ जड़ें गहरी समाई हैं, अभी तक गाँव में
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