मेरे ब्लॉग परिवार के सदस्य

बुधवार, 27 जुलाई 2011

.....अक्सर मज़ाक़ में

जनाब शाहिद मिर्ज़ा "शाहिद" साहब की एक ख़ूबसूरत  ग़ज़ल और उस के रदीफ़ से मुतास्सिर हो कर की गई एक कोशिश पेश ए ख़िदमत है ,...’मज़ाक़ मेंरदीफ़ की वो ग़ज़ल उन के ब्लॉग पर पोस्ट हुई और जनवाणी, मेरठ के कॉलम गुनगुनाहटमें छपी ,, जिस का लिंक भी पेश ए ख़िदमत है

"................अक्सर मज़ाक़ में"
_______________________________

रिश्ते भी वो बनाए है अक्सर मज़ाक़ में
उन को मगर निभाएगा क्योंकर मज़ाक़ में

इक झूट सब के बीच वो इस तर्ह कह गया
फिर जाने कितने टूट गए घर मज़ाक़ में

हर लफ़्ज़ तीर बन के जिगर में उतर गया
हालांकि कह रहा था वो हंस कर मज़ाक़ में

जोकर की तर्ह मेरा भी किरदार हो गया
जग को हंसा रहा था मैं रो कर मज़ाक़ में

अपनी ज़ुबाँ पे इतना तो क़ाबू रखो शेफ़ा
तोड़े न दिल चलाए न ख़ंजर मज़ाक़ में