अक्सर यहाँ वहां होने वाले दंगों के बाद लगी आग ने ये लिखने पर मजबूर किया मजबूरी इसलिए क्योंकि ऐसी ग़ज़लें खुशी में नहीं लिखी जातीं ।
आग ही आग है हर सिम्त बुझाओ लोगो
जल रहे बस्ती में इन्सान बचाओ लोगो
दुश्मनी खत्म हो और दोस्ती का हाथ बढे
हो सके गर तो ये एहसास जगाओ लोगो
दुश्मनी किस से है क्यों है ये अलग मसला है
नन्हे बच्चों पे तो मत दाओं लगाओ लोगो
टूटी ऐनक है जले बसते हरी चूड़ी है
जाओ बस्ती में ज़रा देख के आओ लोगो
बेखाताओं को न मारो यही कहते हैं धरम
जो नहीं जानते ये उन को बताओ लोगो
जब के रावण था mara राम ने ये हुक्म दिया
साथ इज्ज़त के रसूमात निभाओ लोगो
दिल है बेचैन 'शेफा' मुल्क की इस हालत पर
अब भी खामोश हैं हम ख़ुद को जगाओ लोगो
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दुश्मनी खत्म हो और दोस्ती का हाथ बढे
जवाब देंहटाएंहो सके गर तो ये एहसास जगाओ लोगो
क्या बात है!! इस्मत तुम्हारी रचनायें जोश पैदा करती हैं, कुछ कर गुज़रने का जज़्बा पैदा करती है..लिखती रहो, इसी तरह. ये शब्द-पुष्टिकरण तो हटाओ.
मोहतरमा, आदाब,
जवाब देंहटाएंमाशा अल्लाह गज़ल मुकम्मल है...
बस.....
''दुश्मनी खत्म हो और दोस्ती का हाथ बढे''
मिसरे को यूं कर लीजिये
''दुश्मनी खत्म हो और हाथ दोस्ती का बढे''
इसमे जो बहर के एतबार से हल्की सी खामी है, दूर हो जायेगी
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बड़ी अच्छी बात आपने बहुत खूबसूरती से कही है. मैंने भी इसी विषय पर कभी दो पंक्तियाँ लिखी थी, नीचे दिए शीर्षक पर क्लिक करके मुलाहिजा फरमाएं. शीर्षक है :
जवाब देंहटाएं"प्यार देते तो प्यार मिल जाता"
क्षमा कीजिए लिंक जुड़ नहीं पाया. पूरी कविता इस तरह है:
जवाब देंहटाएं* दंगा *
प्यार देते तो प्यार मिल जाता
कोई बेबस दुत्कार क्यूं पाता
रहनुमा राह पर चले होते
तो दरोगा न रौब दिखलाता
मेरा रामू भी जी रहा होता
तेरा जावेद भी खो नहीं जाता
सर से साया ही उठ गया जिनके
दिल से फ़िर खौफ अब कहाँ जाता
बच्चे भूखे ही सो गए थक कर
अम्मी होती तो दूध मिल जाता
जिनके माँ बाप छीने पिछली बार
रहम इस बार उनको क्यों आता?