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मंगलवार, 18 जनवरी 2011

बात अनकही

आज कोई तमहीद नहीं ,बस एक ग़ज़ल मुलाहेज़ा फ़रमाएं 

"बात अनकही"
_______________

जब कभी डराती है शब की तीरगी मुझ को 
मां ही इक मिनारा है दे जो रौशनी मुझ को

बोलती थीं नज़रें पर लफ़्ज़ बे सदा से थे 
वक़्त पर ज़बां ने भी चोट आज दी मुझ को

दर्द दे जो ज़ख़्मों से चूर चूर ख़ुद्दारी
याद आ ही जाती है उस की कज रवी मुझ को 

चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को

कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को 

हम हवा के हमलों को अपने दम पे रोकेंगे
दे रहे भरोसा हैं अम्न ओ आश्ती मुझ को 

क्यों वफ़ा ज़माने की ठोकरों में रहती है?
ये जवाब देती है उस की सादगी मुझ को 

जिन को नर्म गोदी की शफ़क़तों ने पाला था
लग रहे हैं लहजे वो आज अजनबी मुझ को 

आ ’शेफ़ा’ उमीदों के कुछ दिये जला लूं मैं 
अहद ए नौ ने बख़्शी है अपनी ताज़गी मुझ को 

-__________________________________________
मिनारा = light house ;तीरगी = अंधेरा ; शफ़क़तों = स्नेह ,प्यार ;
अहद ए नौ = नया ज़माना ; आश्ती= शान्ति

41 टिप्‍पणियां:

  1. जब कभी डराती है शब की तीरगी मुझ को
    मां ही इक मिनारा है दे जो रौशनी मुझ को
    बहुत उम्दा...
    मां के लिए कितना भी कहें कम है.

    कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को
    नसीहत देने वाला शेर...
    निदा फ़ाज़ली साहब का एक शेर याद आ रहा है-
    हिन्दू भी मज़े में है, मुसलमां भी मज़े में
    इन्सान परेशान यहां भी है वहां भी.
    ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे लगे.

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  2. हम हवा के हमलों को अपने दम पे रोकेंगे
    दे रहे भरोसा हैं अम्न ओ आश्ती मुझ को

    हर पंक्ति बेहतरीन सुन्‍दर शब्‍द रचना ...बधाई ।

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  3. तनिक कठिन हो गया, शब्दों का खेल, भावार्थ बेहतरीन।

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  4. आदरणीय इस्मत ज़ैदी जी
    नमस्कार !
    ..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
    यथार्थमय सुन्दर पोस्ट

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  5. जब कभी डराती है शब की तीरगी मुझ को
    मां ही इक मिनारा है दे जो रौशनी मुझ को

    बहुत लाजवाब .. अभी १६ तारीख को मुन्नवर राणा जी से मुलाकात में उनके माँ पे लिखे शेरों का आनद ले रहा था ... आपका मतला पढ़ कर उनकी याद आ गयी ...

    कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    आज के दौर को बाखूबी कहा है इस शेर में ... हर कोई अपने सिमित दायरे में सिमित कर रह गया है ...
    बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल कही है आपने ...

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  6. क्या खूब पंक्तियों की माला है यह..
    बहुत ही बेहतरीन..
    उर्दू शब्दों का प्रयोग मुझे अच्छा लगता है.. उर्दू कम ही आती है पर आपके ब्लॉग से कुछ सुधार हो जाए :)

    बहुत-बहुत धन्यवाद.. आभार

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  7. कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    सुभान अल्लाह...क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही है...मेरी दाद कबूल करें...

    नीरज

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  8. "बोलती थीं नज़रें पर लफ़्ज़ बे सदा से थे
    वक़्त पर ज़बां ने भी चोट आज दी मुझ को
    कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    वाह..वाह..वाह
    क्या बात है...बहुत खूब
    बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल
    पंक्तियाँ दिल में उतर गयीं
    आपको बधाई
    आभार

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  9. उम्दा ख़यालात
    और
    नफ़ीस अहसासात की बेहतर तर्जुमानी ..
    एक बहुत अच्छी ग़ज़ल !

    कोई शख़्स हिंदू था औ` कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को
    ये शेर ख़ास तौर पर खुद को पढवा रहा है ....

    और....
    क्यों वफ़ा ज़माने की ठोकरों में रहती है?
    ये जवाब देती है उस की सादगी मुझ को
    मन की किसी कोने को समझने के लिए
    ek मददगार शेर ....

    फिर....
    "अहद ए नौ ने बख़्शी है अपनी ताज़गी मुझ को"
    नुज़हत और एतिमाद
    दोनों की एक अलग-सी मिसाल !!

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  10. आपा , बहुत अच्छा लिखा.

    'हम हवा के हमलों को अपने दम पे रोकेंगे
    दे रहे भरोसा हैं अम्न ओ आश्ती मुझ को'

    सलाम.बाकी शेर भी अच्छे हैं.

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  11. चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
    और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को

    कितना कुछ अनकहा रह जाता है....दिल में मचलते भावों को बेहतरीन ढंग से शब्दों में बांधा है.

    हर शेर कुछ सोचने-समझने को विवश करता हुआ.

    जवाब देंहटाएं
  12. जब कभी डराती है शब की तीरगी मुझ को
    मां ही इक मिनारा है दे जो रौशनी मुझ को
    aur us raushni me maa hi dikhaai de humko

    जवाब देंहटाएं
  13. कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को


    इस खूबसूरत ग़ज़ल से रु-ब-रू करवाने का शुक्रिया !

    जवाब देंहटाएं
  14. क्यों वफ़ा ज़माने की ठोकरों में रहती है?
    ये जवाब देती है उस की सादगी मुझ को

    बहुत खूब !

    जवाब देंहटाएं
  15. बोलती थीं नज़रें पर लफ़्ज़ बे सदा से थे
    वक़्त पर ज़बां ने भी चोट आज दी मुझ को

    क्यों वफ़ा ज़माने की ठोकरों में रहती है?
    ये जवाब देती है उस की सादगी मुझ को


    mai kyo nahi kah paati bate is tarah ?? :(

    जवाब देंहटाएं
  16. कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    बहुत खूब .....

    हम हवा के हमलों को अपने दम पे रोकेंगे
    दे रहे भरोसा हैं अम्न ओ आश्ती मुझ को

    ये अम्न औ आश्ती ..
    ये तीरगी पर मीनार ...
    यूँ ही जलती रहे ....
    आमीन ....!!

    जवाब देंहटाएं
  17. कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    bahut khoob...........

    जवाब देंहटाएं
  18. आ ’शेफ़ा’ उमीदों के कुछ दिये जला लूं मैं
    अहद ए नौ ने बख़्शी है अपनी ताज़गी मुझ को
    behad achchi lagi.

    जवाब देंहटाएं
  19. जिन को नर्म गोदी की शफ़क़तों ने पाला था
    लग रहे हैं लहजे वो आज अजनबी मुझ को

    आ ’शेफ़ा’ उमीदों के कुछ दिये जला लूं मैं
    अहद ए नौ ने बख़्शी है अपनी ताज़गी मुझ को

    waah kya baat hai

    जवाब देंहटाएं
  20. बहुत खूब! ये शेर खासकर अच्छे लगे:
    चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
    और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को

    कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    जवाब देंहटाएं
  21. कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    बहुत सार्थक और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति.हरेक शेर दिल को छू लेता है .आभार
    मेरी एक कविता 'आयेगा कहाँ से गांधी' में भी कुछ ऐसे ही भाव थे :

    मंदिर मैं मिले हिन्दू,मस्जिद मैं मुसल्मन थे,
    वह घर न मिला मुझको, इन्सान जहाँ है.

    जवाब देंहटाएं
  22. बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही है, ये शेर बहुत पसंद आये............

    जिन को नर्म गोदी की शफ़क़तों ने पाला था
    लग रहे हैं लहजे वो आज अजनबी मुझ को

    चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
    और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को

    लाजवाब हूँ.

    जवाब देंहटाएं
  23. चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
    और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को

    ...बहुत प्रभावपूर्ण
    आज आपको ब्लॉग पर आपको देखकर बहुत अच्छा लगा.... पहली बार आयी हूँ ..
    हार्दिक शुभकामनाएं

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  24. चाहता था कुछ बोलूं पर ज़बां पे पहरा था
    और कचोके देती थी बात अनकही मुझ को
    सबसे पहले दे से आने के लिये माफ़ी....
    बहुत सुन्दर ग़ज़ल है इस्मत. हर शेर खूबसूरत है. कहने को बहुत कुछ बचा नहीं, सबने सब कह ही
    दिया है :( इसलिये अह्छी अच्छी सब टिप्पणियों से सहमत हूं :):)

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  25. आद.इस्मत जैदी जी,

    कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को


    क्यों वफ़ा ज़माने की ठोकरों में रहती है?
    ये जवाब देती है उस की सादगी मुझ को


    बड़ी गहराई है आपकी ग़ज़ल में ! ये दोनों शेर दिल को छू गए !

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  26. किसी शे'र को चुन नहीं सकता , सारे ही ख़ास है इस ग़ज़ल के लिए ... आपको पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है ....


    अर्श

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  27. वाकई इस्मत जी आदमी ही नहीं मिल पाते यहाँ ....

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  28. मंदिर मैं मिले हिन्दू,मस्जिद मैं मुसल्मन थे,
    वह घर न मिला मुझको, इन्सान जहाँ है.

    बहुत लाजवाब. ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे लगे. बधाई.

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  29. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 25-01-2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  30. आपने बहुत सुन्दर गजल लिखी है!

    जवाब देंहटाएं
  31. उर्दू लफ़्ज़ों का कोई ज़वाब नही। बशर्ते उनके मायने मालूम हों। शुक्रिया! कठिन शब्दों के पर्यायवाची शब्द दिये हैं। पढ़ने मे बेहद उम्दा लगे। खासकर ये लकीरें…कोई शख़्स हिंदू था और कोई मुसलमां था
    हां, मगर न मिल पाया कोई आदमी मुझ को

    जवाब देंहटाएं
  32. इस्‍मत जी, हमेशा की तरह लाजवाब करती गजल। जितनी तारीफ की जाए कम है।


    क्‍या आपको मालूम है कि हिन्‍दी के सर्वाधिक चर्चित ब्‍लॉग कौन से हैं?

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  33. उस दिन गुरूजी से भी कह रहा था मैं जब आपकी और नुसरत जी की तरही साथ लगी थी कि आपकी ग़ज़लों को पढ़कर लगता है कितने कच्चे हैं हम अब तलक जहां तक शेर कहने का सवाल उठता है।...आज फिर इस अहसास ने सर उठाया इस नयी ग़ज़ल को पढ़ने के बाद।

    दूसरा शेर तो बहुत ही पसंद आया है। अपने जैसा कुछ।

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  34. ग़ज़ल के सभी शेर अच्छे लगे.....

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ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया