ग़ज़ल के चंद अश’आर हाज़िर ए ख़िदमत हैं ,
मुलाहेज़ा फ़रमाएं
............हम भी ,तुम भी
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ऐसी गुज़री है कि हैरान हैं हम भी ,तुम भी
आज फिर बे सर ओ सामान हैं हम भी ,तुम भी
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क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
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छीन लेता है यहां भाई की रोटी भाई
सानहे कहते हैं हैवान हैं हम भी , तुम भी
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लब थे ख़ामोश प नज़रों के तसादुम ने कहा
चंद जज़्बों के निगहबान हैं हम भी , तुम भी
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ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं
बेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी
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इम्तेहां लेता है वो और वही हल देता है
तालिबे साया ए रहमान है हम भी , तुम भी
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अना = ego ;तसादुम = टकराव ; बयाबान = जंगल
निगहबान =रक्षक ;
आदरणीया इस्मत ज़ैदी जी
जवाब देंहटाएंसादर नमन !
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी, तुम भी
बेहतरीन ख़यालात के साथ ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
बेहतरीन ख़ूबसूरत ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंक्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
खूबसूरत ग़ज़ल ...
गज़ब का लिखती हैं आप ! सर झुकाने का दिल करता है !
शुभकामनायें आपको !
गहनतम एहसासों को मार्मिक अभिव्यक्ति देती आपकी गज़ब की रचना ह्रदय की गहराइयों से निकली है .....और ह्रदय में गहराई तक उतर जा रही है
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें।
लब थे ख़ामोश प नज़रों के तसादुम ने कहा
जवाब देंहटाएंचंद जज़्बों के निगहबान हैं हम भी , तुम भी
dil ko chhoota sa hai is gazal ka har ek lafz......
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
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छीन लेता है यहां भाई की रोटी भाई
सानहे कहते हैं हैवान हैं हम भी , तुम भी
इस्मत जी की ग़ज़ल पर टिपण्णी हमेशा मुश्किल में दाल देती है...क्या कहूँ ? ऐसे खूबसूरत अशआरों की तारीफ़ के लिए लफ्ज़ बने ही नहीं हैं और जो दिल में ज़ज्बात उठते हैं वो भी लफ़्ज़ों में बयां नहीं हो सकते. आज की तल्ख़ सच्चाइयों को जिस कारीगरी से अपने अशआरों में इस्मत ने बुना है...वो सिर्फ और इस्मत ही बुन सकती हैं...अपनी इस छोटी बहन पर मुझे नाज़ है...
नीरज
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी, तुम भी
वाह .. बहुत खूब कहा है आपने ...।
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
काश ! दुनिया यह समझ पाती तो इस धरती से सारी बुराई एक पल में ख़त्म हो जाती !
आपने ज़िन्दगी की सच्चाई को बखूबी अपने अश आर में ढाले हैं !
आभार !
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं
बेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम
ज़िंदगी को बताती हुई गज़ल ... फिर भी लोंग स्वार्थ में ही लगे रहते हैं ..
बड़ी खूबी से निभाई है ग़ज़ल ...
जवाब देंहटाएंIsmat Ji,
जवाब देंहटाएंBahut Behtareen Ghazal hai Badhayi
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
Surinder Ratti
Mumbai
आपका लिखा हर शेर अपनाप मे ही ख़ास होता है कौन सा ज्यादा बेहतर है ...कहना मुश्किल है
जवाब देंहटाएं"क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी ,तुम भी"
ये बात सबकी समझ में आ जाये, तो फिर झगड़ा ही क्यों हो?
"लब थे ख़ामोश प नज़रों के तसादुम ने कहा
चंद जज़्बों के निगहबान हैं हम भी , तुम भी"
बहुत खूब. बधाई.
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी, तुम भी
वाह!! वाह!! खूब कहा है।
मुबारकबाद !!
बेहतरीन गज़ल, समझने का प्रयास कर रहा हूँ।
जवाब देंहटाएंक्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमानहैं हम भी,तुम भी
इंसान को जिंदगी के क़ीमती फलसफे की सीख
देता हुआ क़ीमती शेर .... वाह !
सबक़ ना ले पाने पर ही ये सोच
फिर आ खड़ी होती है कि
ऐसे गुज़री है कि हैरान हैं हम भी ,तुम भी...
और
ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं
मिसरा ,
अपने आप में जाने क्या कुछ समेटे हुए है ...
और जब कुछ कर पाना , ना कर पाना
अपने बस में न रह पाए , तो
इम्तेहां लेता है वो और वही हल देता है.... !
ग़ज़ल की परम्परा को बखूबी निभाते हुए
शानदार अश`आर ..... !!
ऐसी गुज़री है कि हैरान हैं हम भी,तुम भी
जवाब देंहटाएंआज फिर बे सर ओ सामान हैं हम भी,तुम भी
वाह...कितना मानीख़ेज़ मतला है...
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी,तुम भी
वो हक़ीक़त, जिससे इंसान आंखें बंद किए रहता है...
एक मुकम्मल ग़ज़ल...हर शेर उम्दा.
खास अंदाज़ में कही गई खास बात
जवाब देंहटाएंबेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी
बहुत बहुत मुबारक बाद
gazab ka hai ye 'hum bhi, tum bhi'.....
जवाब देंहटाएंज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं...
जवाब देंहटाएंहर मिसरे पर सिर झुकता है आपा...
कमेन्ट देने के बजाय खुद को आईने में देखना ज़्यादा जरूरी और सही लग रहा है इस वक़्त...
चुपचाप आँख बचा के निकल जाने का मन था आपा..
जवाब देंहटाएंया बहुत सारे कमेन्ट करने का...
हमेशा की तरह बहुत प्यारी गजल कही है आपने।
जवाब देंहटाएं------
तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है...।
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी ..
बस अगर इतनी सी बात इंसान समझ जाय तो दुनिया कितनी खूबसूरत हो जाए .. हर शेर कुछ न कुछ कहता है ... बहुत ही लाजवाब गज़ल है ...
बेहतरीन ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंछीन लेता है यहां भाई की रोटी भाई
जवाब देंहटाएंसानहे कहते हैं हैवान हैं हम भी , तुम भी
सोच रही हूँ किस शेर की तारीफ करूँ..सब एक से बढ़ कर एक .
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा गज़ल.
ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं
जवाब देंहटाएंबेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी... waah
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
खूबसूरत.... बहुत ही उम्दा गज़ल....
सादर....
जिंदगी जीने की फिकरें नहीं जीने देतीं
जवाब देंहटाएंबेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी, तुम भी
.................जानदार शेर
,,,,,,,,,,,,,,,,,उम्दा ग़ज़ल
ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं
जवाब देंहटाएंबेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी...
बहुत खूब! बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..सभी शेर दिल को छू जाते हैं..आभार
har sher jindgi ki kahani kahta hua. umda gazel.
जवाब देंहटाएंआपके ब्लॉग पर आकर बेहद सुकून
जवाब देंहटाएंहासिल हुआ...
बेहतरीन गज़ल ...
शुक्रिया..
ज़िंदगी जीने की फ़िकरें नहीं जीने देतीं
जवाब देंहटाएंबेसुकूनी का बयाबान हैं हम भी , तुम भी
..ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई.
इस्मत जी,
जवाब देंहटाएंक्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी, तुम भी...
बड़ी पते कि बात कह गयी हैं आप इस शेर में...
आपा की कलाम से निकली एक और नायाब ग़ज़ल....वाह!!!
जवाब देंहटाएं"हम भी तुम भी" का रदीफ़ खूब जम रहा और कितनी खूबसूरती से निभाया है मिसरे में| हमसे तो आजकल एक भी मिसरा नहीं बुना जा रहा। आपा| सोचता हूँ आपकी इस लाजवाब जमीन पर ही कुछ बुनने की कोशिश करूँ|
सत्य झलक रहा है हर अक्षर के साथ इस ग़ज़ल के...
जवाब देंहटाएंइंसान तुम हो, इंसान हम भी हैं...
आ कुछ पल बिताएं मोहब्बत के..
दो पल के मेहमान, हम भी हैं. तुम भी...
परवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी, तुम भी
ख़ूबसूरत ग़ज़ल,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी ।क्या खूब ।
बहुत दिनों बाद एक उम्दा गजल पढ़ी , शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंआज फिर बे सर ओ सामान हैं हम भी ,तुम भी
जवाब देंहटाएंफिर मन कह रहा है...
नो कमेंट्स....
हमसे तो आजकल एक भी मिसरा नहीं बुना जा रहा। आपा|
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ आपकी इस लाजवाब जमीन पर ही कुछ बुनने की कोशिश करूँ|
:)
kaun kambakht hai jo aisaa nahin soch raha hogaa mezor saab...
क्यों है इक जंग ज़माने में अना की ख़ातिर
जवाब देंहटाएंजबकि दो दिन के ही मेहमान हैं हम भी , तुम भी
दिल की गहराईयों को छूने वाली बेहद खूबसूरत गजल...आभार.
सादर,
डोरोथी.
बहुत ही सुन्दर गज़ल . कुछ शेर दिल में बस गए है .. बधाई
जवाब देंहटाएंआभार
विजय
कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html