२ माह के वक़फ़े के बाद एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है
आप सब के क़ीमती मश्वरों का इंतेज़ार रहेगा
शुक्रिया
......हमनवा नहीं होता
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वो जो मुझ से ख़फ़ा नहीं होता
दर्द हद से सिवा नहीं होता
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हमज़बाँ तो बहुत मिले लेकिन
क्यों कोई हमनवा नहीं होता
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आग बस्ती की वो बुझाता तो
उस का घर भी जला नहीं होता
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कोई कोशिश कभी तो की होती
तुम से कुछ भी छिपा नहीं होता
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जाग जाते अगर ज़रा पहले
सानेहा ये हुआ नहीं होता
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फ़िक्र रोटी की जो नहीं होती
कोई अपना जुदा नहीं होता
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तुम मसीहाई को जो आ जाते
ख़ौफ़ मुझ को ’शेफ़ा’ नहीं होता
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सिवा= ज़्यादा ; सानेहा= दुर्घटना
सबसे पहले तो खुशामदीद .
जवाब देंहटाएंग़ज़ल के बारे में अपने अल्पज्ञान से बस इतना कह सकता हूँ की आपने जीवन की सच्चाई को तरफ अभीष्ट इशारा किया है . रोटी की तलाश में अपनों से जुदा होना कष्ट प्रदायिनी प्रक्रिया है लेकिन ये मंजर तो आब आम है .
पता नहीं क्या समस्या है कुछ टिप्पणियाँ प्रकाशित नहीं हो पा रही हैं ,मेल से प्राप्त नीरज जी की टिप्पणी __
जवाब देंहटाएंआग बस्ती की वो बुझाता तो
उस का घर भी जला नहीं होता
सुभान अल्लाह...बहुत खूबसूरत शेर कहें हैं आपने...इतनी मुद्दत बाद लौटी हैं और निहायत खूबसूरत ग़ज़ल के साथ लौटी हैं...खुश आमदीद...इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए जिसका हर अशार अनमोल है ढेरों दाद कबूल करें.
नीरज
वो जो मुझ से ख़फ़ा नहीं होता
जवाब देंहटाएंदर्द हद से सिवा नहीं होता
*****
हमज़बाँ तो बहुत मिले लेकिन
क्यों कोई हमनवा नहीं होता
बहुत खूब कहा है आपने ...आभार ।
आग बस्ती की वो बुझाता तो
जवाब देंहटाएंउस का घर भी जला नहीं होता
फ़िक्र रोटी की जो नहीं होती
कोई अपना जुदा नहीं होता
खूबसूरत ग़ज़ल और बेहतरीन शेर, वाह!!
फ़िक्र रोटी की जो नहीं होती
जवाब देंहटाएंकोई अपना जुदा नहीं होता...
....
एक रोटी के खातिर यूँ सिमटे सभी
कि अब कुछ खाने का जी नहीं करता
दिगंबर नासवा जी की टिप्पणी___
जवाब देंहटाएंदिगम्बर नासवा ने आपकी पोस्ट " २ माह के वक़फ़े के बाद एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है... " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
जाग जाते अगर ज़रा पहले
सानेहा ये हुआ नहीं होता ...
बस ऐसे ही कुछ देरी हो जाती है हर मुकाम छूट जाता है ...
लाजवाब गज़ल .... इतने इतने दिनों बाद आपको पढ़ना अच्छा लगता है पर आपका न लिखना खलता भी है ... आशा है आपका स्वस्थ ठीक होगा ...
आग बस्ती की वो बुझाता तो
जवाब देंहटाएंउस का घर भी जला नहीं होता
क्या सादगी है ....
आभार !
संवाद की स्पष्टता ने बहुत प्रभावित किया..
जवाब देंहटाएंbahut khoob...
जवाब देंहटाएंफ़िक्र रोटी की जो नहीं होती
कोई अपना जुदा नहीं होता
behtareen...
वाह ...बहुत खूबसूरत गजल
जवाब देंहटाएंकोई कोशिश कभी तो की होती
जवाब देंहटाएंतुम से कुछ भी छिपा नहीं होता
ग़ालिब की ज़मीन पर इतने दमदार अशआर....कमाल है! अल्लाह करे जोरे-कलम और जियादा
बढ़िया ग़ज़ल... यह शेर सबसे प्रिय लगा...
जवाब देंहटाएंजाग जाते अगर ज़रा पहले
सानेहा ये हुआ नहीं होता ...
हमज़बाँ तो बहुत मिले लेकिन
जवाब देंहटाएंक्यों कोई हमनवा नहीं होता
oh! to yeh beemari international hai---
waqaei--zabardast peshkas---
कोई कोशिश कभी तो की होती
तुम से कुछ भी छिपा नहीं होता
optimistic----aaena dikhaya aapne---
उम्दा शेर... बहुत अच्छी ग़ज़ल...बहुत बहुत बधाई... गज़लें
जवाब देंहटाएंaah nikalti hai aise haalato ko dekhte, bardaasht karte hue. lekin fir bhi yahi sab ho raha hai sabhi k sath.
जवाब देंहटाएंye halaat n hue hote to
ye gazal na hui hoti.
कोई कोशिश कभी तो की होती
जवाब देंहटाएंतुम से कुछ भी छिपा नहीं होता
क्या बात है इस्मत. ये शेर भी बहुत खूब है-
तुम मसीहाई को जो आ जाते
ख़ौफ़ मुझ को ’शेफ़ा’ नहीं होता
ग़ज़ल हा हर शेर बहुत सुन्दर है, हमेशा की तरह.
वाह. कमाल की गज़ल है इस्मत जी.
जवाब देंहटाएंकिस शेर की तारीफ करूँ किसे कोट करूँ समझ नहीं आता. मतले से मकते तक लाजब शेर....