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गुरुवार, 21 जून 2012

आज फिर एक ग़ज़ल ले कर हाज़िर हूँ इस उम्मीद के साथ कि आप सब हज़रात ओ ख़वातीन 
      मेरी बार बार की ग़ैर हाज़िरी को नज़र अंदाज़ कर के अपने ख़यालात से ज़रूर नवाज़ेंगे / नवाज़ेंगी , शुक्रिया


ग़ज़ल
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अपनी चालों से ख़ुद मात खाने लगे
तब यक़ीं के क़दम डगमगाने लगे
*****
लम्स ममता का बख़्शे वो आसूदगी
तिफ़्ल ख़्वाबों में भी मुस्कुराने लगे
*****
अब्र ए बाराँ से सोंधी जो ख़ुश्बू उठी
ख़ुद ब ख़ुद मेरे लब गुनगुनाने लगे
*****
साथ दीवार के रंजिशें ढह गईं
दोनों जानिब क़दम आने -जाने लगे
*****
एक मुद्दत रही हल्की-हल्की तपिश
आग ठंडी हुई ,पर ज़माने लगे 
*****
एक क़तरा ’शेफ़ा’ एहतेजाजन उठा
और नदी के क़दम लड़खड़ाने लगे
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आसूदगी= आराम,राहत ; तिफ़्ल= बच्चा ;एहतेजाजन=विरोध में

15 टिप्‍पणियां:

  1. एक मुद्दत रही हल्की-हल्की तपिश
    आग ठंडी हुई ,पर ज़माने लगे

    क्या बात है इस्मत!!! कमाल का शेर है ये. और-

    एक क़तरा ’शेफ़ा’ एहतेजाजन उठा
    और नदी के क़दम लड़खड़ाने लगे

    भी बहुत सुन्दर है. शानदार तो पूरी ग़ज़ल है, लेकिन ये दोनों शेर तो गुनगुनाने का मन है.

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  2. एक मुद्दत रही हल्की-हल्की तपिश
    आग ठंडी हुई ,पर ज़माने लगे... बहुत ही खूबसूरत शेर। आप मायने न बतातीं तो दूसरे शेर की खूबसूरती समझ नहीं आती। दमदार ग़ज़ल..

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  3. अपनी चालों से ख़ुद मात खाने लगे
    तब यक़ीं के क़दम डगमगाने लगे

    वाह बहुत खूब ...

    साथ दीवार के रंजिशें ढह गईं
    दोनों जानिब क़दम आने -जाने लगे
    *****

    काश ऐसा हो सके ...
    बहुत खूबसूरत गजल

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  4. Behad khoobsurat gazal Ismat ji.... Har ek she'ar umda laga...

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  5. साथ दीवार के रंजिशें ढह गईं
    दोनों जानिब क़दम आने -जाने लगे

    अच्छी आशा है , मगर भरोसा नहीं होता ..
    अक्सर रंजिशे गहरी होती हैं !

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  6. एक मुद्दत रही हल्की-हल्की तपिश
    आग ठंडी हुई ,पर ज़माने लगे ... वाह

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  7. एक मुद्दत रही हल्की-हल्की तपिश
    आग ठंडी हुई ,पर ज़माने लगे ...

    वाह ... बहुत ही खूबसूरत और कमाल का शेर ... इतने जहीन अंदाज़ में बात कों रखा है ... मज़ा आ गया .... पूरी गज़ल कमाल है ... आपकी गज़लों का इंतज़ार हमेशा रहता है चाहे आप देरी से आयें ...

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  8. हम तो पढ़कर बस गुनते है .

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  9. एक एक शेर नगीने सा..... आपके मुरीद होने पर गर्व होता है. यहाँ किस शेर की तारीफ़ करूँ , किसे छोड़ू मुश्किल सवाल......
    एक क़तरा ’शेफ़ा’ एहतेजाजन उठा
    और नदी के क़दम लड़खड़ाने लगे

    इस शेर की कितनी तारीफ करूँ...... बार बार पढने को जी चाह रहा है.

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  10. लम्स ममता का बख़्शे वो आसूदगी
    तिफ़्ल ख़्वाबों में भी मुस्कुराने लगे
    एक क़तरा ’शेफ़ा’ एहतेजाजन उठा
    और नदी के क़दम लड़खड़ाने लगे
    मुझे लगता है कि पूरी गज़ल ही कोट करनी पडेगी हर शेर लाजवाब है। खास कर लम्ज़ ममता के।--- वाह कमाल। शुभकामनायें।

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  11. ‘खुद ब खुद मेरे लब गुनगुनाने लगे’ बहुत उम्दा गजल है। पढ़कर मजा आ गया। पहली बार आपके ब्लाग पर पहंुचा। लगा यहां तो अपने लिए बहुत कुछ है। अच्छी गजल और उसे पढ़वाने के लिए शुक्रिया। गजल मैं भी लिखता हूं लेकिन हिन्दी-उर्दू में नहीं, हिन्दुस्तानी में। कभी मौका मिला तो आपसे भी मशविरा लूंगा।
    नरेंद्र मौर्य

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  12. साथ दीवार के रंजिशें ढह गईं
    दोनों जानिब क़दम आने -जाने लगे....

    बहुत खूब .....!!

    दुआ है आप यूँ ही रंजिशों की दीवारें ढहाती रहे .....

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  13. .


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    * आदरणीया दीदी इस्मत ज़ैदी जी *
    जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं !

    आपके जन्मदिन की सभी परिवार जनों को
    हार्दिक बधाई !
    -राजेन्द्र स्वर्णकार
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  14. एक बार फिर कमाल की गज़ल इस्मत जी. मन खुश हो गया...

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ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया