जहाँ आजकल हमारे देश में 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया 'द्वारा चलाई गयी मुहिम '' अमन की आशा '' के चर्चे हैं ,वहीँ आदरणीय ''सतीश सक्सेना जी '' ने भी उम्मीदों की एक मशाल रौशन की है ,ये रचना इसी मशाल में शामिल एक नन्ही सी लौ है .अगर किसी एक शख्स के दिल में भी टाइम्स की,सतीश जी की या मेरी ये कोशिश उम्मीदों की लौ को तेज़ कर सकी तो ये अमन की दिशा में एक और रचनात्मक क़दम होगा .
'मादरे वतन '
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इस मादरे वतन के ज़ख्मों को मत कुरेदो ,
जो दे सको तो इस को मरहम ज़रूर दे दो .
बच्चे जो इस के बिछड़े, अब तक न मिल सके हैं ,
बेचैन है ये मादर तस्कीन इस को दे दो.
बेवजह लड़ रहे हैं इक दूसरे से भाई ,
ये दुश्मनी मिटाकर , फ़ह्म ओ शऊर दे दो .
जब बात आश्ती की, अम्नो अमां की आये ,
बस मुस्कुराहटें ही इक दूसरे को दे दो .
अब बुग्ज़ और कीना, दिल से निकाल फेंको,
ये चाल है सियासी, तुम इनको मात दे दो .
कुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,
बस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो .
मादर=माँ , फ़ह्म ओ शऊर =बुद्धि और विवेक , आश्ती = शान्ति , बुग्ज़ = ईर्ष्या
कीना = नफ़रत
कीना = नफ़रत
कुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,
जवाब देंहटाएंबस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो .
आमीन .......... बीती ताही बिसार ले ......... कितना सच, कितना कुछ कहा है आपने इस रचना में .......... काश इंसानियत के धर्म को सब अपना पहला धर्म मान सकें .........
बहुत खूब । यह जज्बा हर दिल में है । इसे जाहिर करना और दूसरों तक पहुंचाने के प्रयास का हम स्वागत करतें हैं ।
जवाब देंहटाएंचलो,
फसादियों को निराश कर दें
और 'मनुष्य' के आगे-पीछे बिना कोई
शब्द लगाये उसे बचाये रखें !
आमीन !
कुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,बस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो
जवाब देंहटाएंतुम्हारे इस जज़्बे को सलाम. हर वक्त तुम्हारे साथ हूं, उम्मीद की लौ को तो तेज़ होकर चारों ओर रौशनी फैलानी ही होगी. बस हमें इसी लगन से कोशिशें करते रहना है.
इस मादरे वतन के ज़ख्मों को मत कुरेदो ,
जवाब देंहटाएंसुन्दर आह्वान और सुन्दर रचना
मोहतरमा इस्मत साहिबा, आदाब
जवाब देंहटाएंइस मुल्क की सबसे बड़ी ज़रूरत आपसी भाईचारा है, लेकिन इस अहम सवाल पर कहीं चर्चा नहीं हो रही है. जिन सियासी रहनुमाओं को कोशिश करनी चाहिये, उन्हें ’बांटने’ से फ़ुरसत नहीं है. चलिये जज़्बात पर नई ग़ज़ल इसी मोजू पर होगी
अब मादरे वतन के ज़ख्मों को मत कुरेदो ,
जो दे सको तो इस को मरहम ज़रूर दे दो...
बस मतला ही सब कुछ बयान कर रहा है..
हर शेर में दर्स है, देखें कितने लोग असर लेते हैं???
अफ़सोस यही है कि तमाशबीन खड़े होकर तमाशा ही देखते है, कोई मदद का हाथ नहीं बढाता ! जाने माने लोग इस विषय पर लिखते हुए भी घबराते हैं ! अपनी जिम्मेवारियों से भागते यह लोग. अपने आपको इस देश का सच्चा सपूत भी मानते हैं !
जवाब देंहटाएंअगर यह स्थिति नहीं सुलझी तो मराठी मानस के बाद मुंबई मानस और बाद में दादर मानस भी पैदा होंगे और यह सब इस आधुनिक भारत में हो रहा है !
परस्पर एक दुसरे का हाथ पकड़ने का समय है अब ,हमें साथ रहते हुए हर हाल में एक दूसरे से प्यार करना सीखना ही होगा !
आप जैसे लिखने वालों कि बेहद जरूरत है देश को ,कोई प्रत्साहन दे या न दे, देश को जोड़ने और भीड़ को प्यार सिखाने का प्रयत्न हमें करना ही चाहिए सिर्फ और सिर्फ तब ही हमारी अगली पीढ़ियों का कुछ भला होगा !!
शुभकामनायें !!
दिगंबर जी ,अर्कजेश जी ,वर्मा जी ,शाहिद साहब और वंदना आप सब का बहुत बहुत शुक्रिया ,आपकी यहाँ मौजूदगी इस बात को दर्शाती है कि अप लोग मुझ से इत्तेफाक रखते हैं ,आपलोगों कि सराहना और प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ .
जवाब देंहटाएंबस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो
जवाब देंहटाएंपूरी नज्म जिस एहसास और जज्बे के साथ कही गयी है, उसकी तारीफ न की जाए तो कुफ्र होगा. इस दौर के लिए ऐसी ही नज्मों की ज़रूरत है.
आप अच्छा नहीं, बहुत अच्छा कह रही हैं और बहुतों से बेहतर कह रही हैं. मेरी दुआएं हमेशा आपके साथ हैं.
बहुत उम्दाह है .... Nadeem
जवाब देंहटाएंकुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,बस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो .
जवाब देंहटाएंwah bahut khoob hai tumhari baate ,man mitha mera ho gaya .tumse baate karke bahut khushi hui bayan kaise kare isi khyal me lipte hai .kholte hi yahi aai tumahre shabd gunj rahe the .
जैदी साहब
जवाब देंहटाएंजब बात आश्ती की, अम्नो अमां की आये ,
बस मुस्कुराहटें ही इक दूसरे को दे दो .
अब बुग्ज़ और कीना, दिल से निकाल फेंको,
ये चाल है सियासी, तुम इनको मात दे दो .
क्या ग़ज़ब के शेर कहे हैं आपने...सुभान अल्लाह...इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं...
नीरज
कुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,
जवाब देंहटाएंबस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो .
Ameen hai
har dil ki khwahish yahi hai
sab taraf aman ho
insaniyat hi ek dharm ho
इस मादरे वतन के ज़ख्मों को मत कुरेदो ,
जवाब देंहटाएंजो दे सको तो इस को मरहम ज़रूर दे दो .
बात महज़ चन्द लफ़्ज़ों की नहीं है,,,
इन पाकीज़ा सतरों में जो जज़्बा-ए-फ़िक्र पोशीदा है
वो क़ाबिल-ए-ग़ौर है....
अपनी धरती और उस धरती के
अपने ही बाशिंदों के सुख-दुःख को
अपनी रचनाओं में जगह दे पाना
सच-मुच जोखिम भरा काम समझा जाता है
(जैसा सतीश जी ने कहा भी है)
लेकिन आपने इस भरम को तोड़ दिखाया है
आपके नेक ख़यालात
नज़्म के एक-एक लफ्ज़ को
जिंदगी बख्श रहे हैं...
"कुछ तुम भी भूल जाओ ,
कुछ हम भी भूल जाएँ ,
बस इक यक़ीन ले लो
और इक यक़ीन दे दो ."
हाँ ! ज़रुरत है.....
ऐसे मुक़द्दस जज़्बे की ज़रुरत है . . .
मैं...
सभी ब्लोगर्स को साथ लेते हुए...
सलाम कहता हूँ आपको .
आपकी उम्मीद जरुर रंग लाये, इसी कामना में हम भी शामिल हैं मैम।
जवाब देंहटाएंदेर से आ रहा हूँ। पहले ही पढ़ ली थी आपकी ये दिल को छूने वाली रचना, उस वक्त कुछ लिख नहीं पाया था।
बहुत अच्छा लिखा है आपने।
अब बुग्ज़ और कीना, दिल से निकाल फेंको,
जवाब देंहटाएंये चाल है सियासी, तुम इनको मात दे दो
बहुत खूबसूरत बात कही है आप ने वाह...उर्दू ज़बान का पूरा लुत्फ़ आता है आपकी शायरी में...हमें तो ये ज़बान आती नहीं लेकिन तहे दिल से पसंद है इसलिए ना सिर्फ आपकी ग़ज़लों के शेर पढ़ते हैं बल्कि इस ज़बान के हमारे लिए नए लफ़्ज़ों का जम कर मज़ा भी लेते हैं...
कुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,
जवाब देंहटाएंबस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो
बहुत उम्दा शेर।