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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

"कहाँ खो गईं नन्ही किलकारियां "
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(ये ग़ज़ल २६/११ से मुतास्सिर हो कर कही गयी थी ,लेकिन आज फिर पुणे ब्लास्ट ने हमारे ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया ) 
ग़ज़ल

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सरासीमगी सी  समंदर में है,

कि दहशत का आलम हर इक घर में है


 लबों पर तबस्सुम था बिखरा हुआ


प सिस्की अब उन के मुक़द्दर में है


निशाँ ज़र्द चेहरों पे अश्कों के थे 

कि सुर्ख़ी तो क़ातिल के ख़ंजर में है 


कहाँ खो गईं नन्ही किलकारियां 

बस एहसास ,आग़ोश ए मादर में है 


सियासत के क़ज्ज़ाक फिर लूट लेंगे 

तजुर्बा यही क़ल्ब ए मुज़्तर में है 


जो दहशत गरों को छिपा कर रखोगे 

फिर उगलेगा जो ज़हर अजगर में है 


शराफ़त को ,मेरी न कमज़ोरी समझो 

ये अब सब्र के आखरी दर में है 


जिहादी नहीं एक बुज़दिल है तू 

तेरा नाम आ'दा के लश्कर में है 


'शेफ़ा' तेरा दिल आज ज़ख़्मी बहुत है

दवा इस की बस यादे दावर में है  

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सरासीमगी = परेशानी ,   , आग़ोश = गोद ,  qazzaq =लुटेरे  ,

दर =दरवाज़ा /चौखट ,, बुज़दिल =  कायर , आ'दा = दुश्मन , लश्कर =सेना , दावर = ईश्वर   

17 टिप्‍पणियां:

  1. मोहतरमा इस्मत साहिबा, आदाब
    सरासीमगी सी समंदर में है,
    कि दहशत का आलम हर इक घर में है

    ये इन्सानियत का दर्द है, जो आपने बयां किया है.
    वो लब थे तबस्सुम की आमाजगाह,
    पा सिसकी अब उनके मुक़द्दर में है

    बचपन ही नहीं, हर कोई ऐसे मंज़र देखकर सिहर उठता है
    कहाँ खो गईं नन्ही किलकारियां
    बस एहसास ,आग़ोश-ए-मादर में है...
    .
    ....इस ज़मीन में सबसे गहरा शेर हो गया है..
    जिहादी नहीं एक बुज़दिल है तू
    तेरा नाम आ'दा के लश्कर में है.....

    सच कहा.... ये बात उन्हें अच्छे से समझ लेनी चाहिये..
    आपकी ग़ज़ल, हर सच्चे हिन्दुस्तानी की आवाज है
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

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  2. जिहादी नहीं एक बुज़दिल है तू
    तेरा नाम आ'दा के लश्कर में है.....
    इस्मत, जब भी तुम्हारी गज़ल या कविता पढती हूं तो दिल में देश-प्रेम नये सिरे से ज़ोर मारने लगता है. तुम्हारा दर्द, देश के हालात के प्रति तुम्हारी तकलीफ़ तुम्हारे शब्दों से मुखर होती है. साधुवाद.

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  3. जो दहशत गरों को छिपा कर रखोगे
    फिर उगलेगा जो ज़हर अजगर में है

    शराफ़त को ,मेरी न कमज़ोरी समझो
    ये अब सब्र के आखरी दर में है

    इंसानियत को अक्सर कमज़ोरी समझा जाता है .... पर सब्र का इम्तिहान लेना ठीक नही .... बहुत ही लजवाब शेर कहे हैं आपने ..

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  4. सरासीमगी सी समंदर में है,
    कि दहशत का आलम हर इक घर में है

    ek ek lafz sahi ......life ka koi bhrosa nahi hai


    कहाँ खो गईं नन्ही किलकारियां
    बस एहसास ,आग़ोश-ए-मादर में है...
    .
    bahut dard hai .....

    gazal har dil ki aawaz hai .......

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  5. 'शेफ़ा' तेरा दिल आज ज़ख़्मी बहुत है


    दवा इस की बस यादे दावर में है
    kitna gahra dard ubhar aaya in panktiyon me ki aankhe nam ho gayi ,tumahara sochna jayaz hai ,kash sab mahsoos kar paate ...

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  6. बहुत ही प्रासंगिक है , यह गजल वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में ...दहशतगर्दी के विभिन्‍न पहलुओं पर प्रकाश डालती हुई ..

    जो दहशत गरों को छिपा कर रखोगे
    फिर उगलेगा जो ज़हर अजगर में है

    बहुत खूब कहा है ...हर शेर काबिल-ए-दाद हैं ।

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  7. शाहिद साहब सच कहा आप ने ये हर हिन्दुस्तानी की आवाज़ है
    वन्दना जी
    दिगम्बर जी
    अप्नत्व जी
    श्रद्धा जी
    ज्योति जी और
    अर्कजेश जी
    आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  8. "निशाँ ज़र्द चेहरों पे अश्कों के थे
    कि सुर्ख़ी तो क़ातिल के ख़ंजर में है"

    फिलहाल इस चौंका देने वाले शेर के
    असर से ही baahar नहीं निकल पा रहा हूँ
    इस मौज़ू पर हालांकि बारहा कहा गया होगा
    मगर ऐसी तरतीब-औ-पेशकश
    मुझे लगता नहीं कि पहले कहीं की गयी होगी
    और...
    "सरासीमगी सी समंदर में है...."
    अकेला मिसरा ही
    जाने कितना कुछ कह देने में
    कामयाब बन पडा है
    ग़ज़ल के लहजे में पर्शियन मुहावरों के असरात होते हुए भी
    ज़बान में आम आदमी ,,,
    हिन्दुस्तानी अवाम की aaवाज़ सुनाई दे रही है

    "ये अब सब्र के आखिरी दर में है..."

    ला-जवाब !!

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  9. एक बेहतरीन ग़ज़ल, मैम!

    "वो लब थे तबस्सुम की आमाजगाह,प सिसकी अब उनके मुक़द्दर में है"

    और

    "निशाँ ज़र्द चेहरों पे अश्कों के थे/कि सुर्ख़ी तो क़ातिल के ख़ंजर में है"

    इन दो अशआरों पे जितनी दाद दूँ, कम है।

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  10. शराफ़त को ,मेरी न कमज़ोरी समझो


    ये अब सब्र के आखरी दर में है
    आहा ......................क्या ज़ज्बात हैं..............!
    अच्छी ग़ज़ल के लिए दाद........!

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  11. वाह ! बहुत सही गुस्सा है आपका , इन नापाक मूर्खों ने जिहाद को भी नहीं बख्शा, मासूमों को क़त्ल करके अपने को जिहादी बतलाते हैं ! आप जैसे लेखन की बेहद आवश्यकता है देश को !
    शुभकामनायें !!

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  12. शराफ़त को ,मेरी न कमज़ोरी समझो
    ये अब सब्र के आखरी दर में है

    उफ्फ्फ...क्या शेर है...लाजवाब...
    नीरज

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  13. ग़ज़ल की जितनी तारीफ़ की जाए ...कम है ....बहुत अच्छा

    जवाब देंहटाएं
  14. शराफ़त को ,मेरी न कमज़ोरी समझो
    ये अब सब्र के आखरी दर में है

    बहुत खूब!

    जवाब देंहटाएं

ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया