एक ग़ज़ल
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सदा अवाम की उट्ठी तो फिर दबा न सके
वो आज परचम ए इन्सानियत झुका न सके
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अब इम्तेहान की सा’अत में क्यों ये बेचैनी
जो सारी उम्र ही नेकी कोई कमा न सके
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ख़ुतूत फाड़ के कोशिश तो हम ने की लेकिन
हम एक पल को भी तुम को कभी भुला न सके
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ज़रूरतें हमें आवाज़ दे रही थीं मगर
हम इस ज़मीन से कुछ दूर भी तो जा न सके
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ये कोशिशों में कमी थी कि कोई मजबूरी
जो हम ने अह्द किये थे उन्हें निभा न सके
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मिली है तरबियत ऐसी हमें बुज़ुर्गों से
क़दम कभी भी सदाक़त के डगमगा न सके
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अवाम= जनता; परचम= झंडा; सा’अत= समय
सदाक़त= सच्चाई
मिली है तरबियत ऐसी हमें बुज़ुर्गों से
जवाब देंहटाएंक़दम कभी भी सदाक़त के डगमगा न सके
...लाज़वाब...बहुत उम्दा ग़ज़ल...
ख़ुतूत फाड़ के कोशिश तो हम ने की लेकिन
जवाब देंहटाएंहम एक पल को भी तुम को कभी भुला न सके
वाह ! बहुत खूब ….
बहुत खूब !!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल....दिल से दाद हाज़िर है !!
अनु
"अब इम्तेहान की सा’अत में क्यों ये बेचैनी
जवाब देंहटाएंजो सारी उम्र ही नेकी कोई कमा न सके "
क्या बात.... बहुत उम्दा शेर. शेर तो और दूसरे भी बहुत बढिया हैं, लेकिन इस शेर के तो क्या कहने...जियो
hamesha ki tarah khubsurat gazal
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