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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

 एक फ़िलबदीह (आशु) ग़ज़ल 
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दिल की बस्ती उजड़ गई है अभी
ज़ख़्मी ज़ख़ी सी ज़िंदगी है अभी
*
उस की ज़िंदादिली से लगता है
कोई मुश्किल नहीं पड़ी है अभी
*
मेरी हालत प मुस्कुराता है
उम्र तेरी कहाँ कटी है अभी ?
*
शाम के साए हो गए गहरे
दर प इक शम’अ सी जली है अभी
*
उस के चेहरे प दास्ताँ पढ़ लूँ
इतनी आँखों में रौशनी है अभी
*
ऐ ’शेफ़ा’ किस ने जंग छेड़ी है?
तेरी तो सब से दोस्ती है अभी

17 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद खूबसूरत ग़ज़ल...

    शाम के साए हो गए गहरे
    दर प इक शम’अ सी जली है अभी .....वाह!!!

    अनु

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  2. उस के चेहरे प दास्ताँ पढ़ लूँ
    इतनी आँखों में रौशनी है अभी

    बहुत बढ़िया मैम

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  3. उस के चेहरे प दास्ताँ पढ़ लूँ
    इतनी आँखों में रौशनी है अभी
    क्या कहूं इस्मत...बहुत शानदार ग़ज़ल है बस्स.

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  4. शाम के साए हो गए गहरे
    दर प इक शम’अ सी जली है अभी.... :)

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  5. इसी बहर में एक ग़ज़ल मुझे पसन्द है.. लेकिन अभी उसका ज़िक्र नहीं.. आप बुरा मान जाएंगी, इस्मत आपी! बस एक बात है, आपके अशाअर एक ऐसी सोच पैदा करते हैं दिमाग में जो हौसला देते हैं जो ज़िन्दगी का रुख़ बदल देते हैं.

    उस की ज़िंदादिली से लगता है
    कोई मुश्किल नहीं पड़ी है अभी!

    कमाल का शेर है और कितनी गहरी बात कहता है, साथ ही एक अन्देशा भी दिखाता है छिपाकर! और ये शेर


    मेरी हालत प मुस्कुराता है
    उम्र तेरी कहाँ कटी है अभी?

    आपके तजुर्बात की तर्जुमानी करता है!! बेहतरीन ग़ज़ल!!

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    उत्तर
    1. बहुत शुक्रिया सलिल जी :)
      सालगिरह बहुत बहुत मुबारक हो

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  6. उस की ज़िंदादिली से लगता है
    कोई मुश्किल नहीं पड़ी है अभी
    बहुत खूब !!

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  7. आशु गजाल और इतने लाजवाब शेर ..
    आपस ही कोई कह सकता है ..

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  8. शाम के साए हो गए गहरे
    ............. ग़ज़ल पसंद आई

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ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया