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बुधवार, 4 सितंबर 2013

एक नज़्म हाज़िर ए ख़िदमत है 

ख़्वाहिश
________

वो रोकता मुझे इक बार 
मैं पलट आता
मैं उस के जौर ओ सितम
ख़ुशदिली से सह लेता
मुझे वो मूरिद ए इल्ज़ाम
भी जो ठहराता
ख़ुशी से सारे वो इल्ज़ाम
ख़ुद पे ले लेता
मैं उस की छोटी सी ख़्वाहिश
पे जाँ लुटा देता
मुहब्बतों का जनाज़ा
 मैं दफ़्न कर देता

मगर न जाने कि क्या 
जुर्म हो गया मुझ से
न उस ने मुझ को बुलाया
न इक दफ़’आ रोका
मैं अपनी लाश को
कांधों पे अपने ढोता रहा
और एक वक़्त ये आया
सुपुर्द ए ख़ाक हुआ

बस एक चीज़ ही
ज़िंदा रही मेरे अंदर
वो इक उमीद कि 
शायद मुझे पुकारेगा
वो इक उमीद कि 
शायद मुझे बुला लेगा
वो इक यक़ीन भी देगा
कि कुछ हुआ ही न था
वो मेरा दोस्त कभी मुझ से 
यूँ ख़फ़ा ही न था 
_______________

जौर ओ सितम = अत्याचार, ज़ुल्म ,,,,,मूरिद ए इल्ज़ाम= आरोपी,,,,
जनाज़ा= शव,,,,सुपुर्द ए ख़ाक=धरती को सौंपना ,दफ़्न कर देना,,,,


12 टिप्‍पणियां:

  1. मामी मैं आपकी रचनाओं से बहुत कुछ सीखती हूँ। इस भावपूर्ण नज़्म के लिए शुक्रिया ……

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  2. आपकी रचनाएं पढना, हरबार एक नया अहसास देता है ..
    बधाई !

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  4. बस एक चीज़ ही
    ज़िंदा रही मेरे अंदर
    वो इक उमीद कि
    शायद मुझे पुकारेगा
    वो इक उमीद कि
    शायद मुझे बुला लेगा
    वो इक यक़ीन भी देगा
    कि कुछ हुआ ही न था
    वो मेरा दोस्त कभी मुझ से
    यूँ ख़फ़ा ही न था
    कमाल की नज़्म है इस्मत...... ईश्वर तुम्हारा ये भरोसा हमेशा ज़िन्दा रक्खे...

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  5. मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था की आवाज़ देकर मन लेगी मुझको …
    इंतज़ार की हद बंधी है नज्म में !

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  6. बस एक चीज़ ही
    ज़िंदा रही मेरे अंदर
    वो इक उमीद कि
    शायद मुझे पुकारेगा
    वो इक उमीद कि
    शायद मुझे बुला लेगा
    वो इक यक़ीन भी देगा
    कि कुछ हुआ ही न था
    वो मेरा दोस्त कभी मुझ से

    यूँ ख़फ़ा ही न था
    बहुत ही बढियां

    जवाब देंहटाएं

ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया