एक नज़्म हाज़िर ए ख़िदमत है
ख़्वाहिश
________
वो रोकता मुझे इक बार
मैं पलट आता
मैं उस के जौर ओ सितम
ख़ुशदिली से सह लेता
मुझे वो मूरिद ए इल्ज़ाम
भी जो ठहराता
ख़ुशी से सारे वो इल्ज़ाम
ख़ुद पे ले लेता
मैं उस की छोटी सी ख़्वाहिश
पे जाँ लुटा देता
मुहब्बतों का जनाज़ा
मैं दफ़्न कर देता
मगर न जाने कि क्या
जुर्म हो गया मुझ से
न उस ने मुझ को बुलाया
न इक दफ़’आ रोका
मैं अपनी लाश को
कांधों पे अपने ढोता रहा
और एक वक़्त ये आया
सुपुर्द ए ख़ाक हुआ
बस एक चीज़ ही
ज़िंदा रही मेरे अंदर
वो इक उमीद कि
शायद मुझे पुकारेगा
वो इक उमीद कि
शायद मुझे बुला लेगा
वो इक यक़ीन भी देगा
कि कुछ हुआ ही न था
वो मेरा दोस्त कभी मुझ से
यूँ ख़फ़ा ही न था
_______________
जौर ओ सितम = अत्याचार, ज़ुल्म ,,,,,मूरिद ए इल्ज़ाम= आरोपी,,,,
जनाज़ा= शव,,,,सुपुर्द ए ख़ाक=धरती को सौंपना ,दफ़्न कर देना,,,,
अरे वाह जी ....बहुत सुन्दर ......
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मदन जी
हटाएंमामी मैं आपकी रचनाओं से बहुत कुछ सीखती हूँ। इस भावपूर्ण नज़्म के लिए शुक्रिया ……
जवाब देंहटाएंshandar
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाएं पढना, हरबार एक नया अहसास देता है ..
जवाब देंहटाएंबधाई !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंwah......bahot pasand aayee......
जवाब देंहटाएंक्या बात! वाह!
जवाब देंहटाएंबस एक चीज़ ही
जवाब देंहटाएंज़िंदा रही मेरे अंदर
वो इक उमीद कि
शायद मुझे पुकारेगा
वो इक उमीद कि
शायद मुझे बुला लेगा
वो इक यक़ीन भी देगा
कि कुछ हुआ ही न था
वो मेरा दोस्त कभी मुझ से
यूँ ख़फ़ा ही न था
कमाल की नज़्म है इस्मत...... ईश्वर तुम्हारा ये भरोसा हमेशा ज़िन्दा रक्खे...
मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था की आवाज़ देकर मन लेगी मुझको …
जवाब देंहटाएंइंतज़ार की हद बंधी है नज्म में !
behtareen.... :)
जवाब देंहटाएंबस एक चीज़ ही
जवाब देंहटाएंज़िंदा रही मेरे अंदर
वो इक उमीद कि
शायद मुझे पुकारेगा
वो इक उमीद कि
शायद मुझे बुला लेगा
वो इक यक़ीन भी देगा
कि कुछ हुआ ही न था
वो मेरा दोस्त कभी मुझ से
यूँ ख़फ़ा ही न था
बहुत ही बढियां