इस बार पक्का वादा है कि अब ब्लॉग पर आने में इतनी देर नहीं लगेगी
ग़ज़ल
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ज़ुल्म की ये इंतहा और मुन्सिफ़ी सोई हुई
गर्म है बाज़ार ए ग़म लेकिन ख़ुशी सोई हुई
रेशमी बिस्तर प जागी बादशाहत रात भर
पत्थरों के फ़र्श पर है मुफ़लिसी सोई हुई
ख़ुश्बुओं की ओढ़ कर चादर , बिछा कर रौशनी
बाग़ के हर फूल पर थी चाँदनी सोई हुई
इक सुकूँ चेहरे प, नन्हे हाथ माँ के गिर्द हैं
मामता की गोद में है ज़िन्दगी सोई हुई
उम्र गुज़री है मसर्रत ढूँढ्ते ही ढूँढते
ऐ ’शिफ़ा’ वो अपने अँदर ही मिली सोई हुई
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मुन्सिफ़ी=अदालत; मुफ़लिसी= ग़रीबी; मसर्रत= ख़ुशी;
वाह क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने। मानो जिंदगी को सामने खड़ा कर दिया हो!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया दीपिका जी
हटाएंइस्मत जी , बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शारदा जी
हटाएंरेशमी बिस्तर प जागी बादशाहत रात भर
जवाब देंहटाएंपत्थरों के फ़र्श पर है मुफ़लिसी सोई हुई
आपकी कलम को मंगलकामनाएं !
मन की भावनाओं का दरिया बह चला.....ख़ूबसूरत ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंख़ुश रहिये संजय
हटाएंवाह क्या बात है लाजवाब
जवाब देंहटाएंशुक्रिया रचना जी
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