सरहद पर तैनात जाँबाज़ सिपाहियों की नज़्र एक नज़्म
इंतेज़ार
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मुझे यक़ीन है आऊँगा लौट कर इक दिन
तुम इंतेज़ार की घड़ियों का मान रख लेना
ये कह के आ गया सरहद प फ़र्ज़ की ख़ातिर
और आरज़ू के लिये अपनी बन गया जाबिर
वो छोड़ आया है आँसू भरी निगाहों को
वो छोड़ आया दुआ में उठे कुछ हाथों को
वो अपनी बच्ची को सोता ही छोड़ आया है
उसे भी छोड़ के आया कि जिस का जाया है
बस अपने साथ में लाया है कुछ हसीं लम्हात
वफ़ा की, प्यार की,शफ़क़त की ख़ूबतर सौग़ात
सहारे इन के गुज़ारेगा कुछ सुकून के पल
वो मुश्किलों के निकालेगा सारे ही कस-बल
वो अपने मुल्क की हुरमत का मान रक्खेगा
और उस की आन के बदले में जान रक्खेगा
ये चन्द लम्हे जो फ़ुरसत के उस को मिलते हैं
तो उस के अपनों की यादों के फूल खिलते हैं
उभरने लगता है ख़ाका कि मुन्तज़िर है कोई
उभरने लगती है परछाईं एक बच्ची की
जो अपनी नन्ही सी बाँहें खड़ी है फैलाए
कि कोई गोद में उस को उठा के बहलाए
कि जिस की प्यार भरी गोद में वो इठलाए
जो उस के नख़रे उठाए और उस को फुसलाए
उभरने लगते हैं कुछ लब दुआएं करते हुए
उभरने लगते हैं सीने वो फ़ख़्र से फूले
उभरने लगती है मुस्कान एक भीगी सी
उभरने लगती हैं आँखें कि जिन में फैली नमी
चमकने लगते हैं सिंदूर और बिंदिया भी
हो उठती गिरती सी पलकों में जैसे निंदिया भी
प एक झटके में मंज़र ये सारे छूट गए
ख़लत मलत हुए चेहरे तो धागे टूट गए
हज़ारों मील की दूरी प सारे रिश्ते हैं
चराग़ यादों के बस यूँ ही जलते बुझते हैं
नई उमीद के वो तार जोड़ लेता है
यक़ीं के साथ ही अक्सर ये गुनगुनाता है
मुझे यक़ीन है आऊँगा लौट कर इक दिन
तुम इंतेज़ार की घड़ियों का मान रख लेना
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मालिक तेरी अताओं की हद क्या करूँ बयाँ++ वो भी दिया कि जिस का था वह्म ओ गुमाँ नहीं
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मंगलवार, 4 अगस्त 2015
बिल्कुल छोटी बह्र में एक हिन्दी ग़ज़ल की कोशिश
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ग़ज़ल
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उन की आहट
सिमटा घूँघट
*
ये कौन आया
मन के चौखट
*
भाव छिपाएं
नैनों के पट
*
संबंधों में
कैसी बनवट ?
*
अँधी नगरी
राजा चौपट
*
जीवन यापन
भारी संकट
*
त्याग करे वो
जिस में जीवट
*
निर्जन पनघट
विजयी मरघट
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2015
आज एक हिंदी ग़ज़ल
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देह पर इक सर्प की लिपटा हुआ चंदन मिला
राजनैतिक वीथिका को इक नया आनन मिला
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अश्रु थे आँखों में और चेहरा अटा था धूल से
घूमता गलियों में इक असहाय सा बचपन मिला
*
उसकी आहत भावनाएं सिस्कियाँ भरती रहीं
बंद अधरों में छिपे घावों का इक क्रंदन मिला
*
खुल गई हैं मन की सारी खिड़कियाँ यक्बारगी
जब विचारों का हुआ मंथन तो इक दर्शन मिला
*
मुद्दतें उस ने बिताईं शूल चुनने में ’शिफ़ा’
कितने संघर्षों से गुज़रा तब कहीं मधुबन मिला
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शनिवार, 14 मार्च 2015
इस बार पक्का वादा है कि अब ब्लॉग पर आने में इतनी देर नहीं लगेगी
ग़ज़ल
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ज़ुल्म की ये इंतहा और मुन्सिफ़ी सोई हुई
गर्म है बाज़ार ए ग़म लेकिन ख़ुशी सोई हुई
रेशमी बिस्तर प जागी बादशाहत रात भर
पत्थरों के फ़र्श पर है मुफ़लिसी सोई हुई
ख़ुश्बुओं की ओढ़ कर चादर , बिछा कर रौशनी
बाग़ के हर फूल पर थी चाँदनी सोई हुई
इक सुकूँ चेहरे प, नन्हे हाथ माँ के गिर्द हैं
मामता की गोद में है ज़िन्दगी सोई हुई
उम्र गुज़री है मसर्रत ढूँढ्ते ही ढूँढते
ऐ ’शिफ़ा’ वो अपने अँदर ही मिली सोई हुई
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मुन्सिफ़ी=अदालत; मुफ़लिसी= ग़रीबी; मसर्रत= ख़ुशी;
लेबल:
ग़ज़ल,
चाँदनी,
ज़िंदगी,
मुन्सिफ़ी,
सर्वाधिकार सुरक्षित
मंगलवार, 18 नवंबर 2014
एक अरसे के बाद ग़ज़ल की शक्ल में कुछ टूटे फूटे अल्फ़ाज़ और ख़यालात के साथ हाज़िर हूँ
............. लौट भी आओ सफ़र से
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ख़बर भेजो कभी तो नामाबर से
यही हैं राब्ते अब मुख़्तसर से
यही हैं राब्ते अब मुख़्तसर से
*
बहुत दुश्वार है सहरा नविरदी
बस अब तुम लौट भी आओ सफ़र से
*
निशने पर हूँ मैं हर सम्त से ही
इधर से तीर और ख़ंजर उधर से
इधर से तीर और ख़ंजर उधर से
*
पराया कर दिया लहजे ने तेरे
मैं फिर गुज़रा नहीं उस रहगुज़र से
*
हमारे हौसले पतवार बन कर
बचा लाए सफ़ीने को भँवर से
बचा लाए सफ़ीने को भँवर से
*
तुम्हारी बेक़रारी कह रही है
कभी बिछड़े नहीं थे अपने घर से
कभी बिछड़े नहीं थे अपने घर से
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नामाबर= संदेश वाहक; मुख़्तसर= छोटा ; दुश्वार= कठिन;
सहरा नविरदी = यायावरी ; सम्त= ओर ; रहगुज़र= रास्ता ;
सफ़ीना= नैया ; बेक़रारी = बेचैनी
मंगलवार, 8 जुलाई 2014
आज एक नज़्म ले कर हाज़िर हुई हूँ
उम्मीद है आप को पसंद आएगी
हय्या अला ख़ैरिल अमल ( नेक काम के लिये खड़े हो जाओ )
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ये ख़ौफ़ ओ दहशत के हैं मुनादी
कि ख़ुद को कहते हैं जो जेहादी
वो जिस को चाहें हलाक कर दें
वो जिस को चाहें अमान दे दें
है उन का दावा वही हैं हक़ पर
यक़ीन उन को है लफ़्ज़ ए हक़ पर
जो उन का हामी नहीं ,,वो काफ़िर
जो उन का साथी नहीं,, वो जाबिर
वो मस्जिदों में भी ख़ूँ बहा दें
वो नन्हे बच्चों को भी न बख़्शें
न जाने कितने हैं घर उजाड़े
न जाने कितने नगर उजाड़े
न जाने कैसा मुहीब सा वो
जहाँ को नक़्शा दिखा रहे हैं
वो बर्बरीयत के खेल ही को
है दीन ओ ईमाँ बता रहे
ये ख़ौफ़ ओ दहशत के हैं मुनादी
कि ख़ुद को कहते हैं जो जेहादी
वो जिस को चाहें हलाक कर दें
वो जिस को चाहें अमान दे दें
है उन का दावा वही हैं हक़ पर
यक़ीन उन को है लफ़्ज़ ए हक़ पर
जो उन का हामी नहीं ,,वो काफ़िर
जो उन का साथी नहीं,, वो जाबिर
वो मस्जिदों में भी ख़ूँ बहा दें
वो नन्हे बच्चों को भी न बख़्शें
न जाने कितने हैं घर उजाड़े
न जाने कितने नगर उजाड़े
न जाने कैसा मुहीब सा वो
जहाँ को नक़्शा दिखा रहे हैं
वो बर्बरीयत के खेल ही को
है दीन ओ ईमाँ बता रहे
मगर ये पूछे तो कोई उन से
यही है ईमाँ तो फिर वो क्या है?
यही है मज़हब तो फिर वो क्या है ?
कि जिस में दुश्मन से भी मुहब्बत
कि जिस में हमसाए से रेफ़ाक़त
कि जिस में है औरतों की इज़्ज़त
कि जिस में है हर नफ़स से शफ़क़त
हर एक नुक़्ता सिखा रहा है
जेहाद क्या है बता रहा है
जेहाद, फ़ितनों को रोकना है
जेहाद, हमलों को रोकना है
ये दम ब दम बढ़ती ख़्वाहिशों पर
लगाम कसना, जेहाद ही है
बुझाना प्यासे की प्यास या फिर
किसी के आँसू को पोछना हो
जेहाद के ही हैं काम सारे
जेहाद के ही हैं नाम सारे
अगरचे मैदान में है जाना
अगरचे शमशीर हो उठाना
तो तीरगी के ख़िलाफ़ उट्ठो
जहालतों के ख़िलाफ़ उट्ठो
मिटाओ बातिल के वलवलों को
कुचल दो बातिल के हौसलों को
यही है मज़हब, यही धरम है
जो तुम बताते हो वो भरम है
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यही है मज़हब तो फिर वो क्या है ?
कि जिस में दुश्मन से भी मुहब्बत
कि जिस में हमसाए से रेफ़ाक़त
कि जिस में है औरतों की इज़्ज़त
कि जिस में है हर नफ़स से शफ़क़त
हर एक नुक़्ता सिखा रहा है
जेहाद क्या है बता रहा है
जेहाद, फ़ितनों को रोकना है
जेहाद, हमलों को रोकना है
ये दम ब दम बढ़ती ख़्वाहिशों पर
लगाम कसना, जेहाद ही है
बुझाना प्यासे की प्यास या फिर
किसी के आँसू को पोछना हो
जेहाद के ही हैं काम सारे
जेहाद के ही हैं नाम सारे
अगरचे मैदान में है जाना
अगरचे शमशीर हो उठाना
तो तीरगी के ख़िलाफ़ उट्ठो
जहालतों के ख़िलाफ़ उट्ठो
मिटाओ बातिल के वलवलों को
कुचल दो बातिल के हौसलों को
यही है मज़हब, यही धरम है
जो तुम बताते हो वो भरम है
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मुनादी = एलान करने वाला; हलाक = मारना; मुहीब = डरावना; बर्बरीयत= बर्बरता
रेफ़ाक़त = दोस्ती; नफ़स = व्यक्ति; शफ़क़त = स्नेह ; अगरचे = यदि;
तीरगी = अँधेरा; बातिल = असत्य .
गुरुवार, 10 अप्रैल 2014
एक ग़ज़ल
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सदा अवाम की उट्ठी तो फिर दबा न सके
वो आज परचम ए इन्सानियत झुका न सके
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अब इम्तेहान की सा’अत में क्यों ये बेचैनी
जो सारी उम्र ही नेकी कोई कमा न सके
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ख़ुतूत फाड़ के कोशिश तो हम ने की लेकिन
हम एक पल को भी तुम को कभी भुला न सके
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ज़रूरतें हमें आवाज़ दे रही थीं मगर
हम इस ज़मीन से कुछ दूर भी तो जा न सके
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ये कोशिशों में कमी थी कि कोई मजबूरी
जो हम ने अह्द किये थे उन्हें निभा न सके
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मिली है तरबियत ऐसी हमें बुज़ुर्गों से
क़दम कभी भी सदाक़त के डगमगा न सके
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अवाम= जनता; परचम= झंडा; सा’अत= समय
सदाक़त= सच्चाई
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