२ माह के वक़फ़े के बाद एक ग़ज़ल हाज़िर ए ख़िदमत है
आप सब के क़ीमती मश्वरों का इंतेज़ार रहेगा
शुक्रिया
......हमनवा नहीं होता
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वो जो मुझ से ख़फ़ा नहीं होता
दर्द हद से सिवा नहीं होता
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हमज़बाँ तो बहुत मिले लेकिन
क्यों कोई हमनवा नहीं होता
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आग बस्ती की वो बुझाता तो
उस का घर भी जला नहीं होता
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कोई कोशिश कभी तो की होती
तुम से कुछ भी छिपा नहीं होता
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जाग जाते अगर ज़रा पहले
सानेहा ये हुआ नहीं होता
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फ़िक्र रोटी की जो नहीं होती
कोई अपना जुदा नहीं होता
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तुम मसीहाई को जो आ जाते
ख़ौफ़ मुझ को ’शेफ़ा’ नहीं होता
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सिवा= ज़्यादा ; सानेहा= दुर्घटना