जनाब शाहिद मिर्ज़ा "शाहिद" साहब की एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल और उस के रदीफ़ से मुतास्सिर हो कर की गई एक कोशिश पेश ए ख़िदमत है ,...’मज़ाक़ में’ रदीफ़ की वो ग़ज़ल उन के ब्लॉग पर पोस्ट हुई और जनवाणी, मेरठ के कॉलम ’गुनगुनाहट’ में छपी ,, जिस का लिंक भी पेश ए ख़िदमत है
"................अक्सर मज़ाक़ में"
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रिश्ते भी वो बनाए है अक्सर मज़ाक़ में
उन को मगर निभाएगा क्योंकर मज़ाक़ में
इक झूट सब के बीच वो इस तर्ह कह गया
फिर जाने कितने टूट गए घर मज़ाक़ में
हर लफ़्ज़ तीर बन के जिगर में उतर गया
हालांकि कह रहा था वो हंस कर मज़ाक़ में
जोकर की तर्ह मेरा भी किरदार हो गया
जग को हंसा रहा था मैं रो कर मज़ाक़ में
अपनी ज़ुबाँ पे इतना तो क़ाबू रखो ’शेफ़ा
तोड़े न दिल चलाए न ख़ंजर मज़ाक़ में