जहाँ आजकल हमारे देश में 'टाइम्स ऑफ़ इण्डिया 'द्वारा चलाई गयी मुहिम '' अमन की आशा '' के चर्चे हैं ,वहीँ आदरणीय ''सतीश सक्सेना जी '' ने भी उम्मीदों की एक मशाल रौशन की है ,ये रचना इसी मशाल में शामिल एक नन्ही सी लौ है .अगर किसी एक शख्स के दिल में भी टाइम्स की,सतीश जी की या मेरी ये कोशिश उम्मीदों की लौ को तेज़ कर सकी तो ये अमन की दिशा में एक और रचनात्मक क़दम होगा .
'मादरे वतन '
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इस मादरे वतन के ज़ख्मों को मत कुरेदो ,
जो दे सको तो इस को मरहम ज़रूर दे दो .
बच्चे जो इस के बिछड़े, अब तक न मिल सके हैं ,
बेचैन है ये मादर तस्कीन इस को दे दो.
बेवजह लड़ रहे हैं इक दूसरे से भाई ,
ये दुश्मनी मिटाकर , फ़ह्म ओ शऊर दे दो .
जब बात आश्ती की, अम्नो अमां की आये ,
बस मुस्कुराहटें ही इक दूसरे को दे दो .
अब बुग्ज़ और कीना, दिल से निकाल फेंको,
ये चाल है सियासी, तुम इनको मात दे दो .
कुछ तुम भी भूल जाओ ,कुछ हम भी भूल जाएँ ,
बस इक यक़ीन ले लो और इक यक़ीन दे दो .
मादर=माँ , फ़ह्म ओ शऊर =बुद्धि और विवेक , आश्ती = शान्ति , बुग्ज़ = ईर्ष्या
कीना = नफ़रत
कीना = नफ़रत