एक ग़ज़ल जिसे आप शिकायत समझें या समाज में बढ़ते जा रहे ख़ुदग़र्ज़ी के जज़्बे से एक लम्हे भर को दुखी हुए मन की पीर , लेकिन मेरे लिये ये एहसास लम्हाती था मैं आज भी बहुत पुर उम्मीद हूँ क्योंकि आज भी समाज में उन लोगों का फ़ीसद ज़्यादा है जो बे ग़रज़ और बेलौस जज़्बे के साथ काम करते हैं
फिर भी उस एक लम्हे को आप तक पहुँचाने की जुर्रत रही हूँ
ग़ज़ल
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दूसरों के ग़म में रोता कौन है
बोझ यूँ ग़ैरों के ढोता कौन है
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मुफ़लिसी ने उस की हिम्मत तोड़ दी
वर्ना यूँ ख़ुशियों को खोता कौन है
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है सुकून ओ अम्न गाँवों का नसीब
ख़ौफ़ से शहरों में सोता कौन है
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एक हो कर हम चलो ढूँढें उसे
फ़स्ल ये नफ़रत की बोता कौन है
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उस ने हर ख़्वाहिश को मदफ़न ही दिया
बोझ यूँ इसयाँ के ढोता कौन है
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हम पड़ोसी मस’अले कर लेंगे हल
तीसरा ये शख़्स होता कौन है
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ऐ ’शेफ़ा’ हमदर्दी ए दुश्मन में अब
कश्तियाँ अपनी डुबोता कौन है
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मुफ़लिसी = ग़रीबी,,;,,मदफ़न = क़ब्र ,,;,,इसयाँ = गुनाह ,पाप