'एक डर ' कविता के बारे में मैं कुछ कहना या भूमिका बांधना नहीं चाहती
आप सभी लोग ख़ुद ही समझदार हैं ,धन्यवाद
मालिक तेरी अताओं की हद क्या करूँ बयाँ++ वो भी दिया कि जिस का था वह्म ओ गुमाँ नहीं
अक्सर यहाँ वहां होने वाले दंगों के बाद लगी आग ने ये लिखने पर मजबूर किया मजबूरी इसलिए क्योंकि ऐसी ग़ज़लें खुशी में नहीं लिखी जातीं ।
आग ही आग है हर सिम्त बुझाओ लोगो
जल रहे बस्ती में इन्सान बचाओ लोगो
दुश्मनी खत्म हो और दोस्ती का हाथ बढे
हो सके गर तो ये एहसास जगाओ लोगो
दुश्मनी किस से है क्यों है ये अलग मसला है
नन्हे बच्चों पे तो मत दाओं लगाओ लोगो
टूटी ऐनक है जले बसते हरी चूड़ी है
जाओ बस्ती में ज़रा देख के आओ लोगो
बेखाताओं को न मारो यही कहते हैं धरम
जो नहीं जानते ये उन को बताओ लोगो
जब के रावण था mara राम ने ये हुक्म दिया
साथ इज्ज़त के रसूमात निभाओ लोगो
दिल है बेचैन 'शेफा' मुल्क की इस हालत पर
अब भी खामोश हैं हम ख़ुद को जगाओ लोगो
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