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मंगलवार, 7 मई 2013

एक महीने के वक़फ़े के बाद एक ग़ज़ल के साथ फिर हाज़िर हूँ
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ग़ज़ल
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धड़कनें हों जिस में, वो ऐसी कहानी दे गया
चंद   किरदारों की कुछ यादें पुरानी दे गया
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टूटे    फूटे   लफ़्ज़   मेरे   शेर   में   ढलने   लगे
मेरा मोह्सिन मुझ को ये अपनी निशानी दे गया
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रोज़ ओ शब की रौनक़ें, वो क़हक़हे, वो महफ़िलें
साथ  अपने  ले  गया  और  बेज़बानी   दे   गया
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क्यों ख़ताएं उस की गिनवाते हो तुम शाम ओ सहर
बीज  ख़ुद  बोए  थे  तुम  ने , बस  वो  पानी  दे गया
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ज़िंदगी   ख़ुद्दारियों   के   साए   में   ही   कट   गई
बस  विरासत   में वो  अपनी  जाँफ़ेशानी   दे गया
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माँ का आँचल ,बाप की शफ़क़त के साए का सुकूँ
दूर   सरहद  पर  जवाँ  हर   शादमानी   दे  गया 
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इक मता’ ए फ़िक्र ओ फ़न ,हाथों में तेरे सौंप कर
ऐ  ’शेफ़ा’  वो   तेरे   ज़िम्मे   पासबानी  दे  गया
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किरदार= चरित्र; मोहसिन= जिस ने उपकार किया हो
ख़ताएं= दोष; जाँफ़ेशानी= कड़ी मेहनत; शफ़क़त= स्नेह
शादमानी= ख़ुशी; मता’ ए फ़िक्र ओ फ़न= चिन्तन और कला की दौलत;
पासबानी= रक्षा