'ग़ज़ल'
मुनफ़रिद है वो ज़माने को बताया उसने
क्या है हुब्बुलवतनी कर के दिखाया उसने
वो ख़ुशी मिल गयी जिस का मुतमन्नी था दिल
चंद रोते हुए बच्चों को हंसाया उसने
दर्स ओ तदरीस ज़रूरी है तरक्क़ी के लिए
जा के मजदूर के बच्चों को पढ़ाया उसने
अब नहीं कोई भी मालिक न यहाँ कोई ग़ुलाम
अपनी काविश से ये तफरीक मिटाया उसने
थी वो इक नन्ही सी चिड़िया जिसे ख़ुद पर था यक़ीं
आग को चोंच के पानी से बुझाया उसने
जब भी माज़ी में गया ,जल्द न वापस लौटा
चंद लम्हों को जिया ,ख़्वाब चुराया उसने
जब 'शेफ़ा' भूल गयी अपने तमद्दुन का मेज़ाज
अपनी क़ुर्बानियों से याद दिलाया उसने
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