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रविवार, 3 जनवरी 2010

                                                                       ग़ज़ल
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पूछा किसी ने जा के कभी उस ग़रीब से
लड़ता है कैसे कैसे वो अपने नसीब से 
चोरी है ,रहज़नी है, धमाके हैं ,मौत है 
हालात कैसे होने लगे हैं मुहीब से 

मख्दूश रिश्ते सारे ज़माने के हो गए 
बीमार खौफ़ खाने लगे हैं तबीब से 

बिखरी हैं ख़ाक ओ खून में लाशें यहाँ वहाँ 
लटके हुए हैं हम भी कहीं इक सलीब से 

दहशतगरों ने फूँक दिए कितने शाख़ ओ गुल
नगमा सराई छीन गए   अंदलीब से 

ऐ दुश्मनाने कौम यतीमों की लो न आह
ख़ुशियाँ न रूठ जाएँ तुम्हारे नसीब से

ये एक पुरानी ग़ज़ल है न जाने क्यों आज दिल चाहा कि इसे पोस्ट करूँ शायद आप लोगों को पसंद आये
मुहीब=डरावने , मख्दूश =संदेहास्पद , तबीब = चिकित्सक , सलीब =सूली , नगमा सराई = गाना , अंदलीब = बुलबुल , दुश्मनाने कौम =कौम के दुश्मन