आज क़रीब-क़रीब २ माह के बाद एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ ब्लॉग का रुख़ कर पाई हूँ
हालाँकि एक ख़ौफ़ भी है कि ’शेफ़ा’ कजगाँवी का वजूद ब्लॉग की दुनिया में बाक़ी है
या इतने दिनों की ग़ैर हाज़िरी ने ख़ुश्क पत्ते की तरह ब्लॉग-दोस्तों के ज़ह्नों से
कहीं दूर कर दिया
ग़ज़ल
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जिन के फ़ुटपाथ पे घर, पाओं में छाले होंगे
उन के ज़ह्नों में न मस्जिद , न शिवाले होंगे
उन के ज़ह्नों में न मस्जिद , न शिवाले होंगे
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भूके बच्चों की उमीदें न शिकस्ता हो जाएं
माँ ने कुछ अश्क भी पानी में उबाले होंगे
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मैं बताना भी अगर चाहूं ज़माने के सितम
सामने तेरे ज़ुबां पर मेरी ताले होंगे
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जंग पर जाते हुए बेटे की माँ से पूछो
कैसे जज़्बात के तूफ़ान संभाले होंगे
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तेरे लश्कर में कोई हो तो बुला ले उस को
मेरा दावा है कि इस सिम्त जियाले होंगे
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कुछ न साहिल पे मिलेगा कि ’शेफ़ा’ उस ने तो
दुर ए यकता के लिये बह्र खंगाले होंगी
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शिवाले= मंदिर; शिकस्ता= टूट्ना ; दुर= मोती ;
दुर ए यकता = विशेष मोती ; बह्र= समुद्र