आज ९ अक्तूबर है मेरे ब्लॉग की तीसरी सालगिरह ,
तो मैंने सोचा कि अपनी वो ग़ज़ल पोस्ट करूँ जो मुझे
बेहद पसंद है
आज आप सब दोस्तों ,सलाहकारों, टिप्पणीकारों
और हर उस व्यक्ति का आभार प्रकट
करना चाहती हूँ जिस ने मेरे ब्लॉग को पढ़ा l
ये आप के ही उत्साहवर्धन से संभव हो सका
वर्ना तो शायद ये तीसरी सालगिरह कभी न आ पाती
मैं उन सभी लोगों का भी शुक्रिया अदा करना चाहती हूँ
जो मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं जिन में मेरे
उस्ताद, परिवारजन और मित्रगण शामिल हैं
ख़ास तौर पर अपनी अभिन्न मित्र
वंदना अवस्थी दुबे का
अत: ये ग़ज़ल वंदना को समर्पित है
ग़ज़ल
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यूँ तो मैं दर्द के सहरा से गुज़र जाऊँगा
पर तेरी आँख हुई नम तो बिखर जाऊँगा
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तुम ने वादों की जो ज़ंजीर पिन्हाई थी मुझे
इक कड़ी भी कहीं टूटेगी तो मर जाऊँगा
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वक़्त ए रुख़्सत इसी उम्मीद पे देखा सब को
बढ़ के रोके कोई अपना तो ठहर जाऊँगा
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देखो कहना न किसी से कि वफ़ादार हूँ मैं
लोग दीवाना कहेंगे मैं जिधर जाऊँगा
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मेरा बिखरा हुआ हर लम्हा तेरी आस में है
तू अगर मुझ को संवारे तो संवर जाऊँगा
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सुब्ह को आज भी ये सोच के निकला था वो
आस के जुगनू लिये शाम को घर जाऊँगा
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वो जो आ जाए ’शेफ़ा’ मुझ को सहारा देने
मैं तमन्नाओं की कश्ती से उतर जाऊँगा
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