"कहाँ खो गईं नन्ही किलकारियां "
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(ये ग़ज़ल २६/११ से मुतास्सिर हो कर कही गयी थी ,लेकिन आज फिर पुणे ब्लास्ट ने हमारे ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया )
ग़ज़ल
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सरासीमगी सी समंदर में है,
कि दहशत का आलम हर इक घर में है
लबों पर तबस्सुम था बिखरा हुआ
प सिस्की अब उन के मुक़द्दर में है
निशाँ ज़र्द चेहरों पे अश्कों के थे
कि सुर्ख़ी तो क़ातिल के ख़ंजर में है
कहाँ खो गईं नन्ही किलकारियां
बस एहसास ,आग़ोश ए मादर में है
सियासत के क़ज्ज़ाक फिर लूट लेंगे
तजुर्बा यही क़ल्ब ए मुज़्तर में है
जो दहशत गरों को छिपा कर रखोगे
फिर उगलेगा जो ज़हर अजगर में है
शराफ़त को ,मेरी न कमज़ोरी समझो
ये अब सब्र के आखरी दर में है
जिहादी नहीं एक बुज़दिल है तू
तेरा नाम आ'दा के लश्कर में है
'शेफ़ा' तेरा दिल आज ज़ख़्मी बहुत है
दवा इस की बस यादे दावर में है
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सरासीमगी = परेशानी , , आग़ोश = गोद , qazzaq =लुटेरे ,
दर =दरवाज़ा /चौखट ,, बुज़दिल = कायर , आ'दा = दुश्मन , लश्कर =सेना , दावर = ईश्वर