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सोमवार, 28 मई 2018


कुछ दोहे 
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पायल को छनकाय के ,गोरी यूँ शरमाय
छुईमुई की पाति ज्यों, सिमटी सिमटी जाय
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अहंकार में आग है, देगी सकल जलाय
औषधि है निरमल वचन,, शीतलता भर जाय
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टिक टिक कर के हर घड़ी, देती यही बताय
जीवन गति का नाम है, जड़ मानुष पछताय
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मावस की हर रात जब, अँधियारा घिर आय
नन्हा मिट्टी का दिया, उजियारा दे जाय
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कहाँ गई संवेदना, जो मन को हर्षाय
जग बौराया स्वार्थ में, अपना राग सुनाय
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रविवार, 14 अगस्त 2016

एक अलग मूड की ग़ज़ल जो मेरे लहजे से अलग है
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 चलो कि बज़्म ए सुख़न सजा लें
कुछ उन की सुन लें तो कुछ सुना लें

हसीन जज़्बों को जम’अ कर के
हम अपनी दुनिया अलग बसा लें

वो ख़्वाब जिन में कि तुम हो शामिल
उन्हें इन आँखों में अब छिपा लें

हैं साहिलों पर ये सर पटकतीं
उठो कि लहरों का दिल संभालें

हो जिस में बारिश की सोंधी ख़ुश्बू
बस ऐसी मिट्टी से घर बना लें

जो पाल रक्खे हैं जाने कब से
’शिफ़ा’ दिलों से भरम निकालें

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शनिवार, 14 मार्च 2015

 इस बार पक्का वादा है कि अब ब्लॉग पर आने में इतनी देर नहीं लगेगी

ग़ज़ल
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 ज़ुल्म की ये इंतहा और मुन्सिफ़ी सोई हुई
गर्म है बाज़ार ए ग़म लेकिन ख़ुशी सोई हुई

रेशमी बिस्तर प जागी बादशाहत रात भर
पत्थरों के फ़र्श पर है मुफ़लिसी सोई हुई

ख़ुश्बुओं की ओढ़ कर चादर , बिछा कर रौशनी
बाग़ के हर फूल पर थी चाँदनी सोई हुई

इक सुकूँ चेहरे प, नन्हे हाथ माँ के गिर्द हैं
मामता की गोद में है ज़िन्दगी सोई हुई

उम्र गुज़री है मसर्रत ढूँढ्ते ही ढूँढते
ऐ ’शिफ़ा’ वो अपने अँदर ही मिली सोई हुई
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मुन्सिफ़ी=अदालत;  मुफ़लिसी= ग़रीबी;  मसर्रत= ख़ुशी;