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सोमवार, 28 मई 2018


कुछ दोहे 
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पायल को छनकाय के ,गोरी यूँ शरमाय
छुईमुई की पाति ज्यों, सिमटी सिमटी जाय
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अहंकार में आग है, देगी सकल जलाय
औषधि है निरमल वचन,, शीतलता भर जाय
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टिक टिक कर के हर घड़ी, देती यही बताय
जीवन गति का नाम है, जड़ मानुष पछताय
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मावस की हर रात जब, अँधियारा घिर आय
नन्हा मिट्टी का दिया, उजियारा दे जाय
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कहाँ गई संवेदना, जो मन को हर्षाय
जग बौराया स्वार्थ में, अपना राग सुनाय
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बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

ग़ज़ल
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कहा हो हम ने कुछ , ऐसा नहीं है
कभी तुम ने भी तो पूछा नहीं है
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मिला इन’आम सच कहने का उस को
कड़ी है धूप और साया नहीं है
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सिखाया तज्रिबों ने ज़िंदगी के
जो आता है नज़र , वैसा नहीं है
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सितम आराइये अहबाब देखो
मुझे चोटें तो दीं तोड़ा नहीं है
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करेगा क़द्र इक दिन वो भी मेरी
अभी उस ने मुझे समझा नहीं है
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सितम आराइये अहबाब = दोस्तों का अत्याचार

बुधवार, 23 नवंबर 2016

ग़ज़ल
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जिन के फ़ुटपाथ पे घर ’पाओं में छाले होंगे
उन के ज़ह्नों में न मस्जिद , न शिवाले होंगे
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भूके बच्चों की उमीदें न शिकस्ता हो जाएं
माँ ने कुछ अश्क भी पानी में उबाले होंगे
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मैं बताना भी अगर चाहूं ज़माने के सितम
सामने तेरे ज़ुबां पर मेरी ताले होंगे
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तेरे लश्कर में कोई हो तो बुला ले उसको 
मेरा दावा है कि  इस सम्त जियाले होंगे 
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जंग पर जाते हुए बेटे की माँ से पूछो 
कैसे जज़्बात के तूफ़ान सँभाले होंगे 
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कुछ न साहिल पे मिलेगा कि ’शिफ़ा ’ उस ने तो
दुर ए यकता के लिये बह्र खंगाले होंगी

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रविवार, 14 अगस्त 2016

एक अलग मूड की ग़ज़ल जो मेरे लहजे से अलग है
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 चलो कि बज़्म ए सुख़न सजा लें
कुछ उन की सुन लें तो कुछ सुना लें

हसीन जज़्बों को जम’अ कर के
हम अपनी दुनिया अलग बसा लें

वो ख़्वाब जिन में कि तुम हो शामिल
उन्हें इन आँखों में अब छिपा लें

हैं साहिलों पर ये सर पटकतीं
उठो कि लहरों का दिल संभालें

हो जिस में बारिश की सोंधी ख़ुश्बू
बस ऐसी मिट्टी से घर बना लें

जो पाल रक्खे हैं जाने कब से
’शिफ़ा’ दिलों से भरम निकालें

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शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

सरहद पर तैनात जाँबाज़ सिपाहियों की नज़्र एक नज़्म इंतेज़ार _________ मुझे यक़ीन है आऊँगा लौट कर इक दिन तुम इंतेज़ार की घड़ियों का मान रख लेना ये कह के आ गया सरहद प फ़र्ज़ की ख़ातिर और आरज़ू के लिये अपनी बन गया जाबिर वो छोड़ आया है आँसू भरी निगाहों को वो छोड़ आया दुआ में उठे कुछ हाथों को वो अपनी बच्ची को सोता ही छोड़ आया है उसे भी छोड़ के आया कि जिस का जाया है बस अपने साथ में लाया है कुछ हसीं लम्हात वफ़ा की, प्यार की,शफ़क़त की ख़ूबतर सौग़ात सहारे इन के गुज़ारेगा कुछ सुकून के पल वो मुश्किलों के निकालेगा सारे ही कस-बल वो अपने मुल्क की हुरमत का मान रक्खेगा और उस की आन के बदले में जान रक्खेगा ये चन्द लम्हे जो फ़ुरसत के उस को मिलते हैं तो उस के अपनों की यादों के फूल खिलते हैं उभरने लगता है ख़ाका कि मुन्तज़िर है कोई उभरने लगती है परछाईं एक बच्ची की जो अपनी नन्ही सी बाँहें खड़ी है फैलाए कि कोई गोद में उस को उठा के बहलाए कि जिस की प्यार भरी गोद में वो इठलाए जो उस के नख़रे उठाए और उस को फुसलाए उभरने लगते हैं कुछ लब दुआएं करते हुए उभरने लगते हैं सीने वो फ़ख़्र से फूले उभरने लगती है मुस्कान एक भीगी सी उभरने लगती हैं आँखें कि जिन में फैली नमी चमकने लगते हैं सिंदूर और बिंदिया भी हो उठती गिरती सी पलकों में जैसे निंदिया भी प एक झटके में मंज़र ये सारे छूट गए ख़लत मलत हुए चेहरे तो धागे टूट गए हज़ारों मील की दूरी प सारे रिश्ते हैं चराग़ यादों के बस यूँ ही जलते बुझते हैं नई उमीद के वो तार जोड़ लेता है यक़ीं के साथ ही अक्सर ये गुनगुनाता है मुझे यक़ीन है आऊँगा लौट कर इक दिन तुम इंतेज़ार की घड़ियों का मान रख लेना _______________________________

मंगलवार, 4 अगस्त 2015

बिल्कुल छोटी बह्र में एक हिन्दी ग़ज़ल की कोशिश
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ग़ज़ल
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उन की आहट 
सिमटा घूँघट
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ये कौन आया 
मन के चौखट
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भाव छिपाएं 
नैनों के पट
*
संबंधों में 
कैसी बनवट ?
*
अँधी नगरी
राजा चौपट
*
जीवन यापन 
भारी संकट
*
त्याग करे वो 
जिस में जीवट
*
निर्जन पनघट
विजयी मरघट
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मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

आज एक हिंदी ग़ज़ल
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देह पर इक सर्प की लिपटा हुआ चंदन मिला
राजनैतिक वीथिका को इक नया आनन मिला
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अश्रु थे आँखों में और चेहरा अटा था धूल से
घूमता गलियों में इक असहाय सा बचपन मिला
*
उसकी आहत भावनाएं सिस्कियाँ भरती रहीं
बंद अधरों में छिपे घावों का इक क्रंदन मिला
*
खुल गई हैं मन की सारी खिड़कियाँ यक्बारगी
जब विचारों का हुआ मंथन तो इक दर्शन मिला
*
मुद्दतें उस ने बिताईं शूल चुनने में ’शिफ़ा’
कितने संघर्षों से गुज़रा तब कहीं मधुबन मिला
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