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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

..........है भी नहीं भी

ग़ज़ल के चंद अश’आर पेश ए ख़िदमत हैं ,मालूम नहीं आप सब की उम्मीदों पर खरे उतरेंगे भी या नहीं,
आप सब की सलाहों और इस्लाहों का इन्तेज़ार रहेगा ,शुक्रिया


ग़ज़ल 
-----------------------
गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी


जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी


दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी


अब तक दिल ए मुज़्तर को मेरे चैन नहीं है
पामाल अना मेरी, नेहां है भी नहीं भी


रहबर ये मेरे मुल्क के वादे तो करेंगे
पूरा भी करेंगे, ये गुमां है भी नहीं भी


लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी


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मकीं=मकान में रहने वाले ;अयां=ज़ाहिर ;मुज़तर=बेचैन; नेहां =छिपा हुआ;
पामाल =कुचली हुई ;अना=अहंकार(ego)

21 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन...

    दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
    और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी

    वाह वाह...

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  2. "रहबर ये मेरे मुल्क के वादे तो करेंगे
    पूरा भी करेंगे, ये गुमां है भी नहीं भी


    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी"


    आपने एकदम सटीक चोट करी है ! एक उम्दा नज़्म के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद !


    आज के दौर में हम सब की यही हालत है कि -
    "लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी"

    बहुत खूब !

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  3. दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
    और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी

    रहबर ये मेरे मुल्क के वादे तो करेंगे
    पूरा भी करेंगे, ये गुमां है भी नहीं भी

    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी


    दिली दाद कबूल करें

    आपके अंदाज़े सुखन की उचाइयों पर कहने के लिए शब्दों के मोती पिरोने की कोशिश करता रहा और नाकाम रहा
    इस लिए केवल यही कहता हूँ कि

    इस नाचीज़ की दिली दाद कबूल करें

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  4. मोहतरमा फिर से वही तेवर .........इन्तिज़ार यूँ जाया नहीं जाता
    आपकी ग़ज़ल का बेसब्री से इन्तिज़ार रहता है......इस बार की ग़ज़ल भी शानदार है.
    मतला ता मक्ता ग़ज़ल एक बार में ही गुनगुनाते हुए पढ़ गया.......

    गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
    होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी
    क्या खूब रदीफ़ चुना है........कुर्बान ! बेहतरीन मतला हर नजरिये से.......

    जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
    ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी
    रवायती शेर भी अच्छे से निभाया है.......!

    अब तक दिल ए मुज़्तर को मेरे चैन नहीं है
    पामाल अना मेरी, नेहां है भी नहीं भी
    जलन होती है आपसे .......क्या जबरदस्त शेर है........सोच सोच कर हैरान हो रहा हूँ.....

    रहबर ये मेरे मुल्क के वादे तो करेंगे
    पूरा भी करेंगे, ये गुमां है भी नहीं भी
    असलियत बयां कर दी आपने.......!

    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी
    इससे बेहतर मक्ता और क्या हो सकता था .......मोहतरमा...!
    पूरी ग़ज़ल पर हजारों दाद!

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  5. "जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
    ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी "

    गज़ब का लिखती हैं आप !

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  6. salaah aur islaah to aur hi log deinge ismat ji...


    ham to is naayaab she'r par thahar gaye hain...


    जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
    ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी

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  7. भावों की अभिव्यक्ति के लिये..
    सटीक शब्दों का चयन ही...
    रचना की गुणवत्ता का मापदंड होता है.
    बहुत बहुत बधाई कि इस कला में आप पारंगत हैं.

    गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
    होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी
    कितना खूबसूरत मतला है.

    दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
    और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी
    वाह...शेर ने
    अपने गीत की ये लाइन याद दिला दी-
    हंसते हुए चेहरों के पीछे दर्द की एक कहानी है.
    हर शेर लाजवाब.....
    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी
    बहुत कुछ कह दिया गया है मक़ते में.
    फिर से मुबारकबाद.

    जवाब देंहटाएं
  8. उम्दा, बेहतरीन ग़ज़ल !

    रहबर ये मेरे मुल्क के वादे तो करेंगे
    पूरा भी करेंगे, ये गुमां है भी नहीं भी

    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी

    'है भी नहीं भी'... का बड़ी अदा से इस्तेमाल हुआ है और हर अशार बोल पडा है !
    बधाई !
    भाई--आ.

    जवाब देंहटाएं
  9. दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
    और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी

    ज़रा इस जादू के असर से बाहर आ पाऊँ,
    तो कुछ कहूं ......
    पहले तो ये कहता हूँ कि
    singhsdm और शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद' की
    इक-इक बात से सहमत हूँ ...सच !
    ग़ज़ल की परम्परा बेशक बहुत पुरानी है ,
    लेकिन आज के वक़्त में
    आधुनिकता की इस आंधी में भी
    कुछ आलिम फ़ाज़िल लोग इस चराग़ को जलाए रक्खे हुए हैं
    और,,कहने की ज़रुरत नहीं है कि
    मोहतरमा इस्मत 'ज़ैदी' का नाम उन चंद नामों में ही शुमार होता है .
    ग़ज़ल के सारे अश`आर बहुत उम्दा हैं ...
    हर बार की तरह...
    और
    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी
    सोचता हूँ ..
    इस नायाब शेर का कोई जवाब हो सकेगा क्या ...
    वाह !!

    जवाब देंहटाएं
  10. "जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
    ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी "

    तबीयत खिल उठी इस नायब शेर से....बेहतरीन..

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  11. दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
    और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी

    बहुत ही खूबसूरत ,वाह वाह...........

    जवाब देंहटाएं
  12. गर प्यार न हो तो, ये जहां है भी नहीं भी
    होंगे न मकीं गर,तो मकां है भी नहीं भी

    दुनिया की नज़र में तो हंसी लब पे है उस के
    और जज़्ब ए ग़म रुख़ पे अयां है भी नहीं भी

    लब बंद हैं ,दम घुटता है सीने में ’शेफ़ा’ का
    हक़ कहने को इस मुंह में ज़बां है भी नहीं भी

    बेहद महीन इरादे, बकमाल पेशकस
    भावनाएं सिर्फ शब्दो का खेल नहीं होती, वे जिन्दगी के अनुभवों की गहराई भी नापते हैं जो अभिव्यक्ति के साथ साथ दिखाई देती है।
    यही अहसास होता है आपको पढ़कर

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  13. is rachna ko dalne ke saath hi padh chuki thi ,magar darkar tippani nahi ki ,aur yahan meri soch hi kaam nahi karti ,itni khoobsurat rachna jo hai .kya kahoon ?samjh nahi aata ,umda .

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  14. बहुत खूब ... आपकी ग़ज़ल समा बाँध देती है ..... लाजवाब शेर ...

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  15. इतनी शानदार गजल कहने के बाद भी यह इन्किसारी, पता नहीं आपको पसंद आए, अरे जिसे पसंद न आए वो आँखें रखते हुए भी....!!!
    इतनी मुश्किल बहर और इतनी टिपिकल रदीफ़, मुझे तो पढ़ते हुए ही पसीने छूट गए, गर्मी की वजह से नहीं, बहर और रदीफ़ की हौलनाकी की वजह से. लेकिन निभाया खूब से खूब तर आपने.
    मैं किन्हीं दो एक अशआर की बात क्या करूं, कोई भी शेर ऐसा नहीं, जिसे कमजोर कहा जाए.
    यह मैं कह रहा हूँ...क्योंकि मैं झूट नहीं बोलता!!!
    बहुत दिनों बाद आ सका हूँ, माज़रत की गुंजाइश है ना!

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  16. जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
    ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी

    सिर्फ अकेले इस शेर ने ही नहीं मतले से मकते तक इस ग़ज़ल ने आपकी कलम का दीवाना बना दिया है...वल्लाह...क्या लिखती हैं आप..खुदा आपकी इस बेशकीमत कलम को बद नज़रों से बचाए...आमीन...
    नीरज

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  17. bahut khoob likhtin hain aap...
    saare ke saare ashaar..lajvaab lage
    shukriya..aapka

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  18. बहुत खूब मैम...बहुत खूब! इस मुश्किल रदीफ़ को इतनी सहजता से निबाहना आपके बस की ही बात थी। सर्वत जी की टिप्पणी से मैं भी सहमत हूं ।

    ...और ये शेर साथ लिये जा रहा हूं वक्त-बेवक्त यार-दोस्तों को सुनाने के लिये "जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या/ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी"

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  19. बहुत अच्छा लगा ये वाला शेर:
    जब तुम ही नहीं हो तो ज़माने से मुझे क्या
    ठहरे हुए जज़्बात में जां है भी नहीं भी

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ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया