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शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

ग़ज़ल

टीवी पर दिखाई गई बाढ़ की तस्वीरों ने लिखवाई ये ग़ज़ल
अब के कुछ ऐसे यहाँ टूट के बरसा पानी
ले गया साथ में बस्ती भी ये बहता पानी
मेरी आंखों के हर इक ख्वाब ने दम तोड़ दिया
उन की ताबीर को दो लम्हा न ठहरा पानी
चंद बूँदें भी नहीं प्यास बुझाने के लिए
यूँ तो ताहद्दे नज़र सिर्फ़ है बहता पानी
अब जमीं है न ये बिस्तर है कहाँ पर बैठें
हम दरख्तों पे हैं और पैरों को छूता पानी
हर जगह तैरती बचपन की मेरी यादें हैं
मेरा संदूक बहा ले गया बढ़ता पानी
आज सैलाब बहा ले गया जाने क्या क्या
सारी uम्मीद खत्म करके ही उतरा पानी
जब ये उतरा है तो बीमारियाँ फैलाएगा
अब तलक सुनते थे है जान बचाता पानी

जब ये एहसास हुआ ज़ख्म लगा दिल पे शिफा
अब लहू हो गया सस्ता प है महंगा पानी

16 टिप्‍पणियां:

  1. चंद बूँदें भी नहीं प्यास बुझाने के लिए
    यूँ तो ताहद्दे नज़र सिर्फ़ है बहता पानी
    बहुत्सुन्दर , सार्थक और सामयिक गज़ल, अपने आप में कई अर्थ समेटे हुए. ब्लौग जगत में आपका तहेदिल से स्वागत है. बस ऐसे ही लिखतें रहें.शब्द पुष्टिकरण हटा लेंगीं तो टिप्पणीकारों को सुविधा होगी.

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  2. इस्मत साहिबा,
    ''जब ये उतरा है तो बीमारियाँ फैलाएगा'' मिसरे पर चाहें तो फिर से नज़र कर लीजियेगा. बहरहाल ग़ज़ल में हर पहलू को बयान किया गया है. मुबारकबाद
    शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
    लिन्क-
    1-
    http://shahidmirza.blogspot.com/
    2-
    http://www.shayari.in/shayari/hindi-shayari/
    3-
    http://www.hindishayari.in/shayari/forumdisplay.php?s=&daysprune=&f=2

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  3. waah !!
    aapke khayaalaat
    aur unn meiN bsi sanjeed`gi ko
    salaam kehtaa hooN

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  4. muflis saahab aadab arz hai,aapne mere kalam par jis sanjeedgi se tanqeed ki hai uske liye bahut bahut shukriya.

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  5. पहली प्रस्तुती से पढ़ना शुरु कर रहा हूं आपको...

    बहुत खूब!

    "मेरी आंखों के हर इक ख्वाब ने दम तोड़ दिया उन की ताबीर को दो लम्हा न ठहरा पानी "

    क्या बात है....

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  6. हर जगह तैरती बचपन की मेरी यादें हैं
    मेरा संदूक बहा ले गया बढ़ता पानी

    इस मासूम शेर के लिए आपकी कितनी तारीफ़ करूँ समझ नहीं पा रहा हूँ...देर से ही सही आज आपको पढ़ कर पुरानी सारी कसर निकाल ली है...जब जागो तब सवेरा है...अब आपके ब्लॉग पर नियमित आता रहूँगा...देर से आने के कारण मेरा जो नुक्सान हुआ उसकी भरपाई मुमकिन नहीं...
    नीरज

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  8. सुन्दर। पहली पोस्ट ये थी। ये बाढ़ का बहुत सजीव चित्रण किया है:
    अब जमीं है न ये बिस्तर है कहाँ पर बैठें
    हम दरख्तों पे हैं और पैरों को छूता पानी
    हर जगह तैरती बचपन की मेरी यादें हैं
    मेरा संदूक बहा ले गया बढ़ता पानी


    बहुत शानदार है!

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  9. बहुत खूब...
    हर जगह तैरती बचपन की मेरी यादें हैं
    मेरा संदूक बहा ले गया बढ़ता पानी...
    बेहतरीन गज़ल...
    दाद कबूल फरमाएं.

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  10. बेहद सारगर्भित और यथार्थपरक गज़ल.

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  11. बाढ़ का सजीव चित्रण बहत खूब

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  12. चंद बूँदें भी नहीं प्यास बुझाने के लिए
    यूँ तो ताहद्दे नज़र सिर्फ़ है बहता पानी

    अब जमीं है न ये बिस्तर है कहाँ पर बैठें
    हम दरख्तों पे हैं और पैरों को छूता पानी

    बहुत उम्दा गज़ल...
    सादर.

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  13. आज सैलाब बहा ले गया जाने क्या क्या
    सारी uम्मीद खत्म करके ही उतरा पानी
    जब ये उतरा है तो बीमारियाँ फैलाएगा
    अब तलक सुनते थे है जान बचाता पानी

    बहुत ही सुंदर सच्चाई बयां करती गज़ल ।
    पानी पानी है चहुं और पीने लायक कुछ नही ।

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  14. बहुत खूब,
    अदभुत प्रस्तुत किया है, बाढ़ आने से, पानी के उतरने तक के हर एक एहसास को जीवंत कर दिया शब्दों में आपने

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ख़ैरख़्वाहों के मुख़्लिस मशवरों का हमेशा इस्तक़्बाल है
शुक्रिया